ahalya
‘यह सृष्टि चक्र-सी वक्र, क्षितिज-नभ-जलधि क्रुद्ध
अंतर में रज-तम की प्रवृत्तियाँ चिर-विरुद्ध
मैं करती अपने ही प्राणों से सतत. युद्ध
जो मुझे मुक्ति देने आते वे शुद्ध बुद्ध
अथवा लोलुप काया के?
‘स्मिति-कण जो यौवन कनक-पात्र से रहे छलक
मैं जिन्हें देखती पथ पर रह जाती अपलक
लौ-सी पद चुंबन को चेतनता रही ललक
वह किसी अतींद्रिय स्वनलोक की मधुर झलक
अथवा विभ्रम माया के?