alok vritt

दशम सर्ग

जहाँ लड़ी थी लक्ष्मीबाई प्रबल फिरंगी की सत्ता से
आ पहुँची थी लौ स्वराज्य की आज वहीं फिर कलकत्ता से
उमड़ चली तरुणों की टोली लिये तिरंगा झंडा कर में
गांधी का संदेश गूँजने लगा नागपुर के घर-घर में
सिर पर बाँध कफन जो निकले उनको डर क्‍या तूफानों का!
था ‘वंदे मातरम्‌’ मंत्र-सा आजादी के दीवानों का

जनसागर जयघोष कर उठा देख मंच पर बापू की छवि
चीर दासता की रजनी को अरुण प्रभामय निकला ज्यों रवि
केसरिया साड़ी में लिपटी पूजन-थाल लिये निज कर में
राष्ट्र-वंदना-गीत सुनाया बहनों ने मिलकर मृदु स्वर में–

मेरे भारत, मेरे स्वदेश
तू चिर-प्रशांत, तू चिर-अजेय
सुर-मुनि-वंदित, स्थित, अप्रमेय
हे सगुण ब्रह्म, वेदादि-गेय!

हे चिर-अनादि! हे चिर-अशेष !
गीता-गायत्री के प्रदेश!
सीता-सावित्री के प्रदेश!
हे आर्य-धरित्री के प्रदेश!

गंगा-यमुनोत्री. के प्रदेश!
तू राम-कृष्ण की मातृभूमि
सौमित्रि-भरत की शभ्रातृभूमि
जीवन-दात्री, भवधातृ. भूमि

लक्ष्मण-रेखा कर चुका पार
दशशीश बीसभुज,_ महाकार
सीता भीता करती पुकार–
“हे राम कहाँ रघुकुल दिनेश !’

तेरे गांडीव-पिनाक कहाँ!
शर जिनसे सृष्टि अवाक्‌, कहाँ!
धँस जाय धरा, वह धाक कहाँ!
ओ तपी! उठा पलकें निमेष

द्वादश रवि तेरी भृकुटि क्रुद्ध
तू कालपुरुष हनुमत प्रबुद्ध
करना है अभिनव मुक्ति-युद्ध
उठ जाग, जाग, ओ सुप्त शेष!

शत कोटि भुजायें आज चपल
शत कोटि चरण चिर-अडिग, अटल
हे अमर शक्ति के स्रोत सबल!
तू चिर-विमुक्त, हे व्योमकेश!
मेरे भारत, मेरे स्वदेश!

चितन की मुद्रा में बैठे थे करतल पर चिबुक टिकाये
जय-ध्वनियों में तब बापू ने राष्ट्र-मुक्ति के मंत्र सुनाये–
‘करवट फिर इतिहास ले रहा, नव आलोक-ज्वार है आया
टिक पायेगी अब न दासता की भू पर यह काली छाया
जिसने धरती पर मानवता का पहला जयघोष किया था
बर्बर जग को सत्य-अहिंसा का पावन संदेश दिया था
वही विश्व-गौरव-मणि भारत, क्रूर काल की ठोकर खाकर
पराधीनता में सोया है निज संस्कृति-सभ्यता भुलाकर
भूले हुए देश को उसके बल की याद दिलानी होगी
हमें आज जन-जन के मन की सोयी शक्ति जगानी होगी

भारतवासी असहयोग का जिस दिन शर-संधान करेंगे
बिस्तर बाँध विदेशी उस दिन चुपके से प्रस्थान करेंगे
कायर देते दोष भाग्य को, वीर स्वयं निज भाग्य बनाते
चूक गये यदि आज, पीढ़ियाँ बीतेंगी रोते-पछताते
चरखा ही है द्वार प्रथम इस कारागृह से आजादी का
सजे देशभक्तों के तन पर अमल-धवल बाना खादी का
अब न ग्रामलक्ष्मी भारत की पराश्रिता, श्रीहीन रहेगी
घर-घर में उद्योग जगेंगे, शोभा नित्य नवीन रहेगी
नहीं विरोधी मैं यंत्रों का, मुझे मनुज की मुक्ति चाहिए
यंत्र न हो साधन शोषण के, बस इतनी ही युक्ति चाहिए
दुख से त्राण मिले मानव को, घर-घर में सुख-शांति भरी हो
स्वागत उस विज्ञान-वारि का जिससे जीवन-लता हरी हो
यदि मिलकर इस राष्ट्र-यज्ञ में सब कर्तव्य निभायें अपना
एक वर्ष में ही पूरा हो मेरा रामराज्य का सपना!

बापू के प्रत्येक चरण पर जग की विस्मित दृष्टि लगी थी
पराधीन भारत में जैसे एक अलौकिक शक्ति जगी थी
नयी चेतना स्वतंत्रता की उमँग उठी थी जो लाखों में
कसक रही थी कांटे सी वह क्रूर शासकों की आँखों में
तिल-भर भी आक्रोश देखकर चौरीचौरा की जनता का
यद्यपि बापू ने उसमें निज दोष हिमालय जैसा आँका
तुरत उन्होंने सत्याग्रह का चक्र भले ही ठहराया था
किंतु उन्हें वंदी करने से शासन बाज नहीं आया था
सबसे पहला तीर्थ बना था जो स्वदेश के मुक्ति-समर में
फिर से नाटक रचा न्याय का उसी अहमदाबाद नगर में
कैद जहाँ थी राष्ट्र-चेतना, ज्योति-पताका स्वतंत्रता की
बनी यरवदा की कारा वह सजल दृष्टि-सी भारत माँ की

अवधि-पूर्व निज मुक्ति देखकर बापू खिन्‍न हुए थे मन में
राजनीति के पाँव बँधे थे सत्याग्रह के अनुशासन में
हिन्दू-मुस्लिम-मेल, देश की मद्य-मुक्ति, सेवा हरिजन की
खादी का प्रचार घर-घर में, अब थी यही लगन जीवन की
आत्मशुद्धि का यज्ञ कठिन यह पूरा होने को जब आया
बापू ने इक्कीस दिनों के अनशन का संकल्प सुनाया–

‘धर्म बने हिंसा का साधन, देश रुधिर में खाये गोता
देखूँ मैं असहाय बना, यह सहन नहीं अब मुझसे होता
रुके न बाढ़ घृणा की तो मेरे जीवन का अर्थ नहीं है
कोई भी बलिदान मनुजता की सेवा में व्यर्थ नहीं है
सत्य-अहिंसा की धरती पर क्यों यह रक्तपात मचता है
मैं सौ बार मरूँ यदि मेरे मरने से भारत बचता है!

गदगद होकर विश्व सुन रहा था यह अमर प्रेम की वाणी
हिंदू-मुसलमान दोनों की आँखों से बहता था पानी
‘बचें प्राण बापू के, भगवन्‌!’, कहीं नमाज, कहीं थी पूजा
पूरब-पच्छिम-उत्तर-दक्खिन, भ्रातृ-भावना का स्वर गूँजा
जब सत्ता की नींद न टूटी जनमत जगा-जगाकर हारा
‘लक्ष्य पूर्ण स्वातंत्र्य हमारा,’ वीर जवाहर ने ललकारा
पहली बार देश ने अपना राजमुकुट वापस माँगा था
रावी के तट पर स्वदेश का स्वाभिमान फिर जागा था

उधर साधना, अनुभव वय का, इधर अधीर मचलता यौवन
दोनों में थी होड़ कि खोले कौन प्रथम जननी का बंधन
जलती नूतन दीपशिखा ज्यों बुझते हुए दिये की लौ से
सौंप रहा था ध्वजा राष्ट्र की, पिता पुत्र को क्लांत करों से