anbindhe moti

भूल सकता हूँ, प्रिये ! वह रात मैं

जब कुसुम से मृदु अधर, स्मिति-चद्रिका से चाँपकर
जुगनुओं-से सलज निद्राकुल दूगों से काँपकर
कह दिया तुमने कि तुम भी प्यार करती हो मुझे
भूल सकता हूँ तुम्हारी बात मैं

वक्ष फेनोज्ज्वल जलधि-सा रुँध गया निःस्वास से
उतरती-चढ़ती भवें मैं देखता था पास से
हँस पड़ी तुम, देखते हो पागलों-से आज क्‍या
हँस पड़ा मैं चितवनों की घात में

अलस, कोमल, स्नेहमय, मुख, दीप्त करतल पर टिका
एक लट ज्यों पलक-तट पर खड़ी मुग्ध कुमारिका
चूमकर मैंने अधर, स्मृति-चिह्व जब अंकित किया
भूल सकता हूँ मधुर वह प्रात मैं
भूल सकता हूँ, प्रिये ! वह रात मैं