anbindhe moti

मुझे एक पति चाहिए

(शिकागो की एक होटल में एक अर्ध-भारतीय अमेरिकन युवती से भेंट और उसका दिया हुआ आत्म-परिचय)

मैंने विवाह के कुछ दिन बाद ही
अपने पति को तलाक दे दिया था
मैं अकेली ही दुनिया देखने को निकल पड़ी थी
जीवन का सूत्र मैंने अपने हाथों में ले लिया था

मेरा वह पति एक दकियानूस भारतीय था
उसका बौद्धिक विकास अत्यंत मंद था
वह मुझे खरीदी हुई लौंडी समझता था
मेरा किसी से हँसना-बोलना भी उसे नापसंद था

कोई स्त्री प्रेम की पहल करे
भला यह वह कैसे सह सकता था !
रोजे के दिनों में तीस-तीस दिन तक
वह बिना प्रेम किये ही रह सकता था

मैंने तो विवाह के पूर्व उसे देखा भी नहीं था
वह मेरे पुराणपंथी माता-पिता का चुनाव था
वे उस जमाने के लोग थे जब जाति और कुल का ही
विवाह के बाजार में सब से ऊँचा भाव था

उन्होंने यह भी नहीं देखा कि मेरा पति
क्या नाचघर में मेरे साथ डांस कर सकता है
शराबखानों में मुझे ले जा सकता है
होटलों में मेरे साथ रोमांस कर सकता है

ऐसे पति के साथ मेरा निर्वाह कैसे होता
जिसने कुछ ही दिनों में मुझे दो बच्चों से लाद दिया
और जब मैं उन्हें साथ लेकर निकल गयी
तो भूलकर भी एक बार मुझे याद नहीं किया !

इसी कारण तो मुझे अपने प्यारे बच्चों को
सरकारी यतीमखाने को सौंप देना पड़ा
नौकरी की तलाश में. दर-दर भटकना पड़ा
सभी राग-रंगों से हाथ खींच लेना पड़ा

मेरा दूसरा पति एक अमेरिकन टैक्सी-ड्राइवर था
यों तो शय्या पर वह मुझे पूर्णतः तुष्ट कर सकता था
परंतु वह अपनी अत्यंत सीमित आय से
अकेले अपना पेट भी पूरी तरह नहीं भर सकता था

वह तो बस पीकर धुत पडा रहता था
उसके शराब का बिल भी मैं ही चुकाती थी
अपनी नौकरी के गिने-चुने पैसों से ही
घर का कुल खर्च भी मैं ही उठाती थी

किसी भी देश के निवासी हों
पुरुष सभी एक से होते हैं
स्त्री ही सारे जंजाल झेलती है
वे तो प्रेम करके निश्चिंत सोते हैं

उससे भी दो बच्चों की भेंट लेकर
अंत में मुझे अलग ही होना पड़ा
पुनः जीवन सागर में निराधार बहना पड़ा
एक तिनके का सहारा भी खोना पड़ा

परंतु इतने बच्चों को मैं अकेली कैसे पालती
मैने अपने सीने पर पत्थर धर लिया
आखिर एक दिन उन दोनों को भी ले जाकर
उसी यतीमखाने के सुपुर्द कर दिया

और अब मैं चारों ओर डूबती, उतराती फिरती हूँ
दो बलिष्ट भुजाओं के सहारे के लिए
जहाँ मुझे पाँव टिकाने की जगह मिल सके
एक किसी छोटे से किनारे के लिए

उम्र बड़ी तेजी से खिसकती जा रही है
मेरे कपोलों के गुलाब कुम्हला रहे हैं
रूप और यौनाकर्षण के दोनों ही सूत्र
मेरे हाथों से फिसलते जा रहे हैं

मुझे शीघ्र ही एक पति चाहिए
जो मुझसे प्रेम करे, मुझे सहानुभूति दे सके
मेरे माथे पर एक छोटा-सा छप्पर डाल सके
मेरी सारी चिंताएं अपने सिर पर ले सके

परंतु पति तो बाजार में नहीं मिलते हैं
जहाँ जाकर मैं उन्हें खरीद लाऊँ
खुली हुई बाँहे अवश्य मिलती हे
चाहूँ तो जिनमें घड़ी भर को समा जाऊँ

यह क्‍या ! आपकी आँखें नम क्‍यों हो आयीं
आपके मन की पीडा मैं खूब पहचानती हूँ
परंतु इसीका नाम तो जीवन है, मेरे मित्र !
इन लहरों से खेलना मैं भली भाँति जानती हूँ

बात बस इतनी-सी है कि अपने हाथ-पाँव ढीले छोड़ दें
संघर्ष करने से ही हम यहाँ थकते हे
कोई भी पीड़ा हमारे मन को छू नहीं सकेगी
यदि हम उसे हँसकर स्वीकार कर सकते हैं।

1983