anbindhe moti

रवीन्द्रनाथ के प्रति
(उनके मृत्यु-दिवस की संध्या में लिखित)

भीड़ देवता के अंतिम दर्शन में
भक्त भवन-प्रांगण में क्रंदन करते,
मलयानिल रोता फिरता निर्जन में

किस सुषमा के नंदनवन में
अप्सरियों की छूम-छनन में
आज, महाकवि ! तुम अपनी सोने की वीणा लेकर
हुऐ उत्तरित क्षण में

हँसती होगी परियाँ
सुर, गंधर्व-समाज, समुद किन्नरियाँ
आज इंद्र की भरी राजनगरी में
छुटती होंगी फूलों की फुलझरियां

आज तुम्हारी मधुमय स्वर-झंकार
स्वयं भारती मंत्र-मुग्ध हो सुनती,
रहीं दिव-वधू-गण आरती उतार

सरस्वती के वरद पुत्र तुम
चरण-स्पर्श-सुख-रहित मैं कुसुम,
खड़ा रहा जो द्विधा-द्वंद्व में, बंद हो गया द्वार

फूट गये सुकुमारी तेरे भाग्य
छीन काल ने ली मणि रतल-मुकुट की
कविते ! तेरा उजड़ा आज सुहाग
तू मुखरित जिसकी वाणी पा
आज स्वयं वह मौन हो गया
व्योमवासिनी ! अब न धरा पर आना
लगी हमारे मधु-कुंजों में आग

तारे ही टूटते, देखते-सुनते
किंतु आज टूटा रवि भी तारों-सा
शोक-मग्न हो अखिल लोक सिर धुनते
तारे टूट भूमि पर पड़ते
तुम भू से स्वर्गों पर चढ़ते
निठुर विश्व से मानवता का प्रतिनिधि
तुम्हें छोड़कर किसे विधाता चुनते !

तुम मानव-गुरु स्रष्ट से भी बढ़कर
विधि-विरचित सर-सरित सूख जायेंगे
झरता होगा अमर काव्य का निर्झर

दे जगती को सौरभ अपना
कवि ! तुम बने प्रात का सपना
सत्यं, शिवं, सुंदरं की ध्वनियों से गुंजित दशों दिशाएं
जल, थल, अंबर

1941