bhakti ganga

ऐसे ही रह लूँगा
जो कुछ भी कहना है, अपने मन से कह लूँगा

तार आज ढीले हों मेरे
हाथ नहीं फिरते हों फेरे
पर ओ अन्तर्वासी ! तेरे

सुर में ही बह लूँगा

पिछले राग-रंग थे झूठे
मेरे वाद्ययंत्र कुल टूटे
जो न कभी होंठों से टूटे

वंशी अब वह लूँगा

ऐसे ही रह लूँगा
जो कुछ भी कहना है, अपने मन से कह लूँगा