bhakti ganga
करूँ क्या, यदि मन हो न विरागी!
तुमसे भी तो, प्रभु! जग में यह माया गयी न त्यागी
चिर-असंग भी व्याकुल क्षण-क्षण
फिरे न जनक-सुता हित वन-वन!
क्या न द्वारिका में तड़पा मन
जब राधा-स्मृति जागी!
मुझसे ही कैसे बन पाये
रहूँ ह्रदय पर आड़ लगाये!
क्या फिर, मैंने जब घन छाये
स्वाति-बूँद यदि माँगी!
बुझी न मन की तृष्णा अब तक
रवि न उगे, रजनी है तब तक
कृपा-दृष्टि तुम करो न जब तक
यह ठगिनी कब भागी!
करूँ क्या, यदि मन हो न विरागी!
तुमसे भी तो, प्रभु! जग में यह माया गयी न त्यागी