bhakti ganga
कहाँ वह पीर प्रेम की पाऊँ?
जिसके बिना शब्द रीते हैं, सुर में लाख सजाऊँ!
दी जिसने कबीर को वाणी
मीरा थी जिससे दीवानी
कैसे वही तड़प अनजानी
गीतों में भर लाऊँ!
कर में यह वीणा ले सुन्दर
तानें तो छेड़ीं जीवन भर
पर यदि तू रीझे न सुरों पर
निष्फल है जो गाऊँ
ठाठ भक्ति के भी रच थोड़े
मैंने जग के राग न छोड़े
तार न यदि तुझसे हैं जोड़े
गायक व्यर्थ कहाऊँ
कहाँ वह पीर प्रेम की पाऊँ?
जिसके बिना शब्द रीते हैं, सुर में लाख सजाऊँ!