bhakti ganga

अपने रँग में मुझे रँगा दो
श्रद्धा-ज्योति जला कर मन में, भव-भय दूर भगा दो

यश की मृगतृष्णा में कातर
भटक रहा हूँ मैं निशि-वासर
मेरा मिथ्या मोह मिटा कर

सच्ची प्रीति जगा दो

लेकर मैंने पट ईर्ष्या का
चित्र सदा अपना ही आँका
कैसे कहूँ कि तिरछा बाँका

वह अब कहीं टंगा दो

जिसमे धँसे कबीर मस्त बन
किया सूर-तुलसी ने मज्जन
यही बहुत, उस सर के दो कण

मेरे लिए मँगा दो

अपने रँग में मुझे रँगा दो
श्रद्धा-ज्योति जला कर मन में भव-भय दूर भगा दो