bhakti ganga
चला मैं सदा लीक से हट के
कौन, कहाँ, कब, क्या कहता है, देखा नहीं पलटके
थी अहेतुकी कृपा तुम्हारी
दूर हुई कुंठायें सारी
करें कूपहित क्यों श्रम भारी
वासी गंगातट के!
पूजा में ही जो सुख पाता
वह प्रसाद को कब अकुलाता!
तुझसे जिसने जोड़ा नाता
द्वार-द्वार क्यों भटके!
अब मैं, नाथ! और क्या माँगूँ!
इसी भाव में सोऊँ, जागूँ
हँसते, गाते यह तन त्यागूँ
चिंता पास न फटके
चला मैं सदा लीक से हट के
कौन, कहाँ, कब, क्या कहता है, देखा नहीं पलटके