bikhare phool

एक दिन वासंती संध्या में
खड़े सिन्धु-तट पर थे जब हम, हाथ हाथ में थामे

ढलते रवि को मुझे दिखाकर
तुमने पूछा था अकुलाकर
‘तुम भी लौट सकोगे जाकर

क्या कल नयी उषा में?’

‘और लौट भी सके दुबारा,
क्या होगा फिर मिलन हमारा?
पा लूँगी फिर प्रेम तुम्हारा

भाव यही मन का मैं?

तभी पलटकर ज्वार बह गया
पल में रज का महल ढह गया
प्रश्न वहीं-का-वहीं रह गया

उड़ता हुआ हवा में

एक दिन वासंती संध्या में
खड़े सिन्धु-तट पर थे जब हम, हाथ हाथ में थामे