diya jag ko tujhse jo paya
दुख में भी निश्चल अंतर हो
वर दो, प्रभु! मैं सहज रह सकूँ जब जीवन का शेष प्रहर हो
नश्वर खेल-खिलौनों से हट, चेतनता तुमसे जुड़ जाये
जग का देखा-सुना भुलाकर, मन अनंत की दिशि मुड़ जाये
सुनूँ तुम्हें कहते, ‘न डरो, तुम चित्स्वरूप हो, अजर-अमर हो’
आत्मतृप्ति, संतोष, शान्ति हो, पल न विकलता हो वियोग की
भोगों की मृगतृष्णा छूटे, लगे समाधि समत्व-योग की
श्रद्धा का संबल लेकर जीवन चिर-यात्रा को तत्पर हो
शैशव से अब तक जो गुरुजन, बंधु, सखा, सहयात्री छूटे
रहना भी हो कल उनके सँग, तोड़ यहाँ के बंधन झूठे
टूटे नहीं जगत से नाता, आऊँ निज कृतियों का स्वर हो
दुख में भी निश्चल अंतर हो
वर दो, प्रभु! मैं सहज रह सकूँ जब जीवन का शेष प्रहर हो