diya jag ko tujhse jo paya
पकड़े राम नाम की डोर
तुलसी ने तो सहज छू लिया था अनंत का छोर
पर, ओ शंकाकुल मन मेरे!
तुझे ज्ञान का भ्रम है घेरे
जब भी दृष्टि स्वयं में फेरे
दिखता कोई चोर
तू यदि क्षमा, दया के गुण ले
निर्गुण, सगुण इष्ट कुछ चुन ले
भजे उसे फिर सच्ची धुन ले
छले न भव-तम घोर
तूने यदपि न भक्ति निबाही
पर प्रभु ने की कृपा सदा ही
आगे भी दे गति मनचाही
चित हो यदि उस ओर
पकड़े राम नाम की डोर
तुलसी ने तो सहज छू लिया था अनंत का छोर