diya jag ko tujhse jo paya
प्रभो! इस बंधन की बलिहारी
क्या ले करूँ मुक्ति, ग्रीवा में जब है डोर तुम्हारी!
महाकाल की मखशाला में
क्या, यदि हूँ बलि का बकरा मैं!
तुम हो सिरा डोर का थामे
बहुत यही बल भारी
साध यही, फिर-फिर यों बँधकर
पाऊँ यही कृपा, जगदीश्वर!
लीलाभूमि तुम्हारी सुन्दर
प्रिय हो जगती सारी
जो दैवी गुण, नाथ! गिनाये
उनसे ही रखना बँधवाये
देखूँ, अंतिम पल जब आये
सम्मुख प्रभु छवि प्यारी
प्रभो! इस बंधन की बलिहारी
क्या ले करूँ मुक्ति, ग्रीवा में जब है डोर तुम्हारी!