diya jag ko tujhse jo paya

बँटने दो प्रसाद औरों हित
धन्य बना मैं, देव-द्वार पर पाकर ही फल-फूल अयाचित

क्षोभ, कसक, संताप नहीं है
जो भी मिला, न मिला, सही है
प्रेरक प्रभु की कृपा रही है

रहा लक्ष्य के प्रति संकल्पित

क्या सुख, नित नव राग बढ़ाये
यदि मन में विश्रांति न आये!
मैंने तो आत्मिक सुख पाये

वाणी की सेवा में ही नित

बस यह चाह, कि जब तन छूटे
यह जाग्रत समाधि मत टूटे
काल भले ही जग-सुख लूटे

चित-विकास-क्रम रहे अबाधित

बँटने दो प्रसाद औरों हित
धन्य बना मैं, देव-द्वार पर पाकर ही फल-फूल अयाचित