diya jag ko tujhse jo paya

प्रेम, प्रभु! तूने सदा निभाया
मैं तो तुझे भुला बैठा था पर तूने न भुलाया

बिना भक्ति के सुख क्या चाहूँ!
यही बहुत निज भाग्य सराहूँ
जिससे जग-दुख झेल सका हूँ

वह स्वर तुझको भाया

फिरता यश की मृगतृष्णा में
डोर रहा शब्दों की थामे
भूला, लोभी हूँ जिसका मैं

वह है तेरी माया

मन अब किस मुँह से कुछ माँगे!
बस तू कह ‘अपात्र’ मत त्यागे
यही प्रेम पाऊँ मैं आगे

जाऊँ जहाँ बुलाया

प्रेम, प्रभु! तूने सदा निभाया
मैं तो तुझे भुला बैठा था पर तूने न भुलाया