diya jag ko tujhse jo paya
प्रेम का बंधन कैसे तोड़ूँ!
जिसमें तू भी बँध जाता है उससे मुँह क्यों मोड़ूँ!
यदपि प्रेम ने सदा रुलाया
चाहा जिसे, न वह टिक पाया
लगता, झूठी है कुल माया
यह ममता-घट फ़ोड़ूँ
पर मन के ऊपर जो चित है
कहता, ‘सृष्टि प्रेम में स्थित है,
जो सत्ता दिक्काल-रहित है
तार उसीसे जोड़ूँ
‘प्रेम-बीज ही भक्ति-विटप बन
करता है जग-ताप-निवारण
होता मुक्त उसीसे जीवन
छल कह उसे न छोड़ूँ!
प्रेम का बंधन कैसे तोड़ूँ!
जिसमें तू भी बँध जाता है उससे मुँह क्यों मोड़ूँ!