diya jag ko tujhse jo paya

यदि मैं भूल न करता
तो क्यों रो-रोकर यों स्वामी! चरण तुम्हारे धरता!

क्यों होती यों व्यथा हृदय में!
अकुलाकर एकांत समय में
फूटा करती दुख की लय में

यों मन की कातरता!

मैं प्रवृत्तिरत, मुझसे अगणित
हुए पाप, होंगे भी नव नित
पर प्रतीति है, तुम उदार-चित

क्षमा करोगे, भर्ता!

क्या न सदा तुमने आ-आकर
मुझे सँभाला है इस पथ पर!
वही कृपा करना, आऊँ घर

जब मैं डरता-डरता

यदि मैं भूल न करता
तो क्यों रो-रोकर यों स्वामी! चरण तुम्हारे धरता!