diya jag ko tujhse jo paya
यह तप का भ्रम क्यों पाला है!
जब तेरे उर में न धधकती, भक्ति-भावना की ज्वाला है!
प्रेम-यज्ञ में निजता कर हवि
हरिगुण गा भव-मुक्त हुए कवि
तूने तो पुजवाने निज छवि
यह स्वर-मंडप रच डाला है
पर कितने भी कागज़ रँग ले
शब्दों से दुनिया को ठग ले
कालपुरुष-सम्मुख तो, पगले !
ढोंग न यह चलनेवाला है
क्या रच-रचके अक्षर टाँके
यदि शब्दों से हृदय न झाँके!
मुग्ध करें क्या सुर कविता के
जीवन में न जिन्हें ढाला है!
यह तप का भ्रम क्यों पाला है!
जब तेरे उर में न धधकती, भक्ति-भावना की ज्वाला है!