diya jag ko tujhse jo paya

स्वामी! वह प्रतीति दो मन की
जिस पर रीझ, नाथ! तुमने तुलसी की तृषा हरी दर्शन की

क्या मोरों-सा शोर मचाये!
नाच-नाचकर जगत रिझाये!
यदि चातक की आन न भाये

व्यर्थ प्रेम की टेक ग्रहण की

वह अनन्यता भले न पाऊँ
कुछ तो वैसी वृत्ति बनाऊँ
करो कृपा, प्रभु! तुम तक आऊँ

भुला क्षणिक सिद्धियाँ भुवन की

यदपि लोक-संबंध निबाहे
मन तो सदा तुम्हें ही चाहे
वह निष्ठा दो, नाथ! न दाहे

मुझे विफलता इस जीवन की

स्वामी! वह प्रतीति दो मन की
जिस पर रीझ, नाथ! तुमने तुलसी की तृषा हरि दर्शन की