gandhi bharati

महानाश के महाकाल में जीवन की पतवार पकड़
पहुँचा दी जिसने स्वदेश की नौका सकुशल लक्ष्य-समीप
छुटे तीर-सी, दी उखाड़ चिर-सुदृढ़ राज्यभवनों की जड़
आत्मिक बल से, बुझा फूँक से ही वह मानव-भाग्य-प्रदीप !

जिसने मिट्टी के दूहों को छूकर दिया मनुज का रूप,
जड़ को वाणी दी, वाणी को बल, बल को आत्मा का तेज,
कर्म-भावना-ज्ञान-योग का जिसने दिया यथार्थ स्वरूप
एक बिंदु में, मनुज अभागा उसे नहीं रख सका सहेज–

युग-युग तक, कैसे इसको कर क्षमा सकेगा ईश कभी!
एक पाप से शापित चिर-दिन धरा, एक के तप से ही
जैसे सुमनांजली देव-पूजित वह थी हो रही अभी,
पुष्पवती-फलवती हुई थी जैसे एक विटप से ही।

रोओ, हाय! स्तब्ध है धरती, आज हिमालय काँप रहा।
पिता रक्त से अपने निज पुत्रों के धो अभिशाप रहा।