gandhi bharati

मंडप बना प्रचंड, घेर बैठी पंडित-मंडली अपार,
मुंडित-सिर, दंडित-कर , खंडन-मंडन के आडंबर-मग्न,
महाक्षितीश्वर पत्नी सुदक्षिणा के सँग आये अविकार
मूर्त त्याग से, देख यज्ञ का त्रिभुवन-विजय-सफलता-लग्न

अगणित पुष्ट वृषभ, अश्वों की पंक्ति, मिश्र शब्दों का नाद
सकरुण स्वर में, खड़े विप्रगण वेद-ऋचा पढ़ रहे अजस्र
मोरों-से–‘ साम्राज्य तुम्हारा फैले स्वर्गों तक, आस्वाद
करो सोम का, दो प्रति-याज्ञिक-कर में मुद्रा एक सहस्र।’

सहसा आया भिक्षु एक–‘राजन्‌ | हिंसा है धर्म नहीं
मानव का, पशुता है वह, बलिदान करो मत इन सबका
पुण्य समझ कर, मूकों पर असि-घात वीर का कर्म नहीं,
कायरता है, देखो तो, लघु वत्स तड़पता वह कबका।’

खुले नृपत्ति के नेत्र, अहिंसा-शांति-दया का सुन संदेश,
लिया चक्रवर्ती ने सहसा धर भिक्षुक का भगवा वेश।