gandhi bharati

एक तरी कुछ पीत पटों से भरी छोड़ कर सागर-तीर
चली तीर-सी, चंद्र-दीप्त शर्वरी मदिर उतरी नभ से
फूले फेनिल जलधि-वक्ष पर, करती तन-मन-प्राण अधीर
किसी अजान अदृश्य स्नेह की सुमनांजलि के सौरभ से।

दिखी दूर से रावण की लंका सुवर्ण की प्रात-समय,
उतरा भिक्षुक-वृंद बालुका पर अंकित कर पद अपने
रक्‍तकमल-से, पीत वसन में चंद्रागत जन जान सभय
छिपे भीत तट-वासी, कुछ वृद्धायें मंत्र लगीं जपने

राजकुमार भिक्षुओं का तब बोल उठा आश्वासन में,
‘डरो नहीं, मैं मित्र सभी का, लाया हूँ स्वर्गिक वरदान,
त्याग-अहिंसा-सत्य-न्याय के, लिप्सा-द्वेषभरे मन में
प्रेम जगाने से ही होगा आज तुम्हारा चिर-कल्याण।’

मंत्र शांति का था वह, बापू! जिसे पुनः तुमसे पाकर
एक हुए हैं पूर्व और पश्चिम के सतत विरोधी स्वर।