gandhi bharati
देख रहा मैं, क्षुब्ध प्रकृति, पर्वत के शिखर उलट गिरते
धरा-गर्भ से अंध अतल में, महानाश बन नाच रहीं
ज्वाला की लपटें कराल, जन-पुंज, नगर जिनसे घिरते,
सिंधु-लहरियाँ क्रुद्ध व्योम-रवि-शशि तक मार कुलाँच रहीं
शत्रु-मित्र का भेद भुलाकर काल सभी को साथ समेट
जबड़ों में कसता, राष्ट्रों के छत्र पत्र-से रहे बिखर
दग्ध धरित्री पर, प्रतिक्षण माँगती भैरवी नूतन-भेंट,
शेष चिह-से जीवन के गिर रहे मनुजता के खँडहर।
सहसा धवल ज्योति हिमकर-चंद्रिका-सदृश वह कौन अमंद
मंद हास से मधुर सुधा-वर्षण करती आ रही चली
इस विनाश में, विश्व विमोहित सुन जिसकी वीणा के छंद,
चूम रही कोमल पगतलियाँ त्रस्त-विकल मानव-अवली।
ज्योति अहिंसा की अथवा वह बापू की छाया है मौन!
इस विनष्ट होती संस्कृति को आज बचाने आया कौन!