gandhi bharati
महाशून्य में कौन बढ़ा जा रहा लकुटिया अपनी टेक
अंबरचुंबी हिम-श्रृंगों पर, जिसके प्रतिपद पर सुकुमार
विकस रहे नक्षत्र-कुमुद-पदचिह्न , स्वर्ग करता अभिषेक
नभगंगा की धारा से, पाटल-पुष्पों का पहने हार–
देववधू सोल्लास कर रहीं सुमन-वृष्टि, उंचास पवन,
सप्त सिंधु, दश दिशा, अष्ट वसु, रुद्र ग्यारहों, वरुण कुबेर
लुटा रहे मणिकोष विनत पलकों से करते मधुर स्तवन,
छाया करता शेष स्वयं आ निज अशेष फणमंडल घेर।
बह लघु सुमन-देह, कृश, कंपित, मानव-भाग्य-सूत्र-सी क्षीण,
डगमग पग वे, जगमग वसुधा जिनकी पद-नख-द्युति को चूम,
देख रहा मैं एक निमिष में अभी हो गयी किधर विलीन
तड़ित-ज्योति-सी, विकल चेतना चक्राकार रही है घूम।
अंधकार घन, सृष्टि अतल में चली, प्रकंपित तारालोक,
मानवता के महानाश को आज कौन पायेगा रोक!