gandhi bharati

लिखते-लिखते शेष हो गई स्याही, हाथ रुके थककर
फिर भी भाव-ज्वार रुक पाता नहीं; कल्पना बंधन-हीन
आज मुक्त मानव की जयजयकार कर रही उन्नत-स्वर,
गूँज रही है भुवन-भुवन में मेरे प्राणों की यह बीन।

सप्त सिन्धु चुक जायँ लेखनी-अनी हिमालय-सी घिस जाय,
फिर भी लिख पाऊँगा मैं बापू की यह गौरव-गाथा,
जिसने नव अवलंब दिया पाकर मानवता को असहाय
देख रहा मैं चकित आज जग कैसा है! पहले क्‍या था!

मिला व्यष्टि को सत्याग्रह का शस्त्र, समष्टि-हदय को सत्य,
प्रेम-अहिंसा की कोमल भावना, विश्व को दृष्टि नवीन
आत्मिक बल की, मिली ज्ञान को शांति, भाव को कर्मठ भृत्य
सेवा-यन्त्र-सदृश, प्राणों को पीर, त्याग वैभव को दीन।

पराधीन जन ने पाया स्वातंत्र्य, पतित ने पावन स्पर्श;
स्नेह दलित ने, सुख दुखियों ने, मानवता ने नव उत्कर्ष।