gandhi bharati

वह देखो उठती बापू के चिता-धूम से एक विराट
ज्योति:काया, वाम हस्त आश्वासन-समुद्रा-स्थित, आजानु
दक्षिण में कृश दंड बाँस का, पदतल-नत शत-शत सम्राट
कोटि-कोटि जन, मुँदे अधरपुट स्मिति-प्रभ, नयन दीप्त ज्यों भानु

गूँज रही घर-घर में करुणा-सत्य अहिंसा की वाणी
शुचि-प्रकाश-सी, छिन्‍न मनुज-मन की जड़त्व-भय- भ्रम-कारा
एक साथ ही, बहती कलकल स्वर भर जन-जन कल्याणी,
दग्ध-गात मानवता-हित पावन, उज्वल सुरसरि-धारा

बढ़ता ही जाता प्रकाश ढँकता अपने में सब संसार,
फैल रहा अनदेखे सुमनों की सुवास-सा प्रेम नवीन
उर-उर में, पलकों की शीतल छाया में बढ़ती अविकार
लक्ष्य-समक्ष निखिल संसृति यह, चिर-सुंदर, चिर-कल्मषहीन।

मरकर भी जी उठा मसीहा पहन रक्त सुमनों का साज।
भूमि-स्वर्ग का परिणय होता, देखो, इन लपटों में आज,