geet ratnavali

उचित मुझ पर आक्रोश सभीका,
मेरे माथे से न मिटेगा यह कलंक का टीका

पर होता जब सागर-मंथन
सुधा-पूर्व विष ही आता छन
मुझको पाना था हरि-दर्शन

मोह हटाकर जी का

योग-मार्ग जिसने भी साधा
नारी उसे लगी थी बाधा
मेरा तब चिंतन था आधा

लगा प्रेम रस फीका

यद्यपि कह सकता अब खुलकर
भक्ति प्रेम का है रूपांतर
संभव नहीं, छोड़ पाऊँ, पर

बाना संन्यासी का

उचित मुझ पर आक्रोश सभीका,
मेरे माथे से न मिटेगा यह कलंक का टीका