geet ratnavali

आप तो अपने मन की बोले
किंतु कभी क्या मेरे भी अंतर के घाव टटोलें!

मन में जो पतिमूर्ति बसायी
हाय! कहूँ अब उसे, “गुसाई’!
पर क्‍यों, यह वेला जब आयी

रहूँ बिना मुँह खोले!

भूले, बाँह किसीकी थामी!
क्या न यहाँ थे अंतर्यामी!
सीतापति-दर्शन को, स्वामी!

नगर-नगर क्‍यों डोले!

पर अब विनय यही, दासी बन
चलूँ जहाँ आश्रम है पावन
प्रभु-चरणों में कटें शेष क्षण

जन्म सुफल यह हो ले

आप तो अपने मन की बोले
किंतु कभी क्‍या मेरे भी अंतर के घाव टटोले!