geet vrindavan

मैंने नारीतन क्यों पाया!
मोरपंख, मुरली, पीताम्बर, विधि ने क्यों न बनाया!

मोरपंख बनती यदि, मोहन!
करते आप शीश पर धारण
डोलूँ अधर लगी मुरली बन

उसको नहीं सुहाया

पीताम्बर बनकर यदि आती
यों न बिलखते रात बिताती
भुजपाशों में बँध-बँध जाती

करती उर पर छाया

क्या फल मिला जन्म यह पाकर!
सजती कहीं आपके तन पर
रहती सँग सँग, नाथ!  निरंतर

सार्थक होती काया

मैंने नारी-तन क्यों पाया!
मोरपंख, मुरली, पीताम्बर, विधि ने क्यों न बनाया!