geet vrindavan
करूँ क्या नहीं समझ में आता
प्रिये! विदा लेते अब तुझसे रोम-रोम अकुलाता
‘दूर पंक में प्रिया जाल फँस
रहे देखता ज्यों गज बेबस
वैसे ही यों जाल गया कस
मुझसे बढ़ा न जाता
‘साध्य असाध्य सभी हैं साधे
मैंने सेतु शून्य पर बंधे
टूटा भाग्य-सूत्र पर राधे
आज नहीं जुड़ पाता
‘पूरा देख कार्य जब मेरा
काल-वधिक डालेगा घेरा
तब भी यह कातर मुख तेरा
होगा मुझे रुलाता’
करूँ क्या नहीं समझ में आता
प्रिये! विदा लेते अब तुझसे रोम-रोम अकुलाता