hansa to moti chuge

९५१.
वादा आने का कर गया था कोई
उम्र भर इंतज़ार करते हैं
९५२.
अब ये प्याला भी छलका तो क्या !
उम्र कट ही गयी बेपिये
९५३.
वो एक बात, जो उनसे थी चलते वक्त हुई
वो एक बात तो पहले भी हो गयी होती !
९५४.
कट गयी है उम्र सारी काटते चक्कर, मगर
राह मिलती है न तेरे घर में आने के लिए
९५५.
कुछ हम भी लिख गये हैं तुम्हारी किताब में
गंगा के जल को ढाल न देना शराब मैं
९५६.
हमको पता है खूब, नहीं आँसुओं का मोल
पानी में फिर भी, आग लगाने चले हैं हम
९५७.
मिलेंगे हम जो पुकारेगा दुख में कोई कभी
हरेक आँख के आँसू में है हमारा पता
९५८.
पाँवों की लकीरें तो मिटा देती है यह राह
राही को मिटा दे, कभी ऐसा नहीं होगा
९५९.
मिलेगा चैन तो धरती की गोद में ही हमें
नज़र की दौड़ सितारों के पार हो, तो हो
९६०.
कौन होता है बुरे वक्त में साथी किसका !
आईना भी ये दगाबाज बदल जाता है
९६१.
डूबी है नाव अपने ही पाँवों की चोट से
हम नाचने लगे थे किनारों को देखकर
९६२.
जब डूबना है, क्यों भला माँझी का लें एहसान !
दो हाथ और पास किनारे हुए तो क्या !
९६३.
सैकड़ों प्यार की दुनिया तबाह करके ही
एक इंसान की तकदीर बनायी जाती
९६४.
हम नहीं रहे तो क्या बहार मिट गयी !
बाग़ था छिपाये हुए और सौ गुलाब
९६५.
हाथ भर दूर ही रहता है किनारा हरदम
हमको यह नाव चलाते ही हुई उम्र तमाम
९६६.
बेसुधी रुकने नहीं देती हमें
जब कोई मंज़िल नज़र आती भी है
९६७.
इस दौर का हर पीनेवाला फिरता है तलाश में प्याले की
एक हम हैं कि प्याला हाथ में ले ख़ुद को ही पुकारा करते हैं
९६८.
अब तो छाया भी साथ छोड़ रही
धूप जीवन की सिर पे आ ही गयी
९६९.
हर नये मौसम में खिलते हैं नये रँग में गुलाब
एक दुनिया को नहीं भाये तो क्या ! भाये तो क्या !
९७०.
यों तो न रुक सकी कभी कूची तेरी, रँगसाज !
फिर भी कभी ये हाथ ठहर जायँ तो अच्छा
९७१.
लाख तूफ़ान उठ रहे थे, मगर
दिल को पत्थर बनाके बैठ गये
९७२.
न जिसके शुरू-आखिरी के हैं पन्ने
किताब एक ऐसी पढ़े जा रहे हैं
९७३.
चलते-चलते मिल ही जायेंगे कभी
ज़िंदगी का ताना-बाना चाहिए
९७४.
देखिये, हमको कहाँ राह लिये जाती है
अब तो मंज़िल भी यहाँ साथ ही चलती देखी
९७५.
जहाँ भी हमको मिली राह कोई जानी हुई
वहीं से पाँव को तिरछा हटाके रक्खा है
९७६.
मंज़िल भले ही, गर्द से पाँवों की, छिप गयी
मंज़िल का एतबार कभी छिप नहीं सकता
९७७.
आयेगा कुछ नज़र तो कहेंगे पुकारकर
आँखें मिला रहे है अभी ज़िंदगी से हम
९७८.
आग जो दिल में फतिंगे के है, दीपक में वही
यह है जलने के लिए, वह है जलाने के लिए
९७९.
उदास साँझ, हवा सर्द है, बादल हैं घिरे
और परदेश के डेर में बंद हैं हम लोग
९८०.
एक ताजमहल प्यार का यह भी है, दोस्तो !
है इसमें ज़िंदगी मेरी, कुछ और नहीं है
९८१.
ऐसी बहार फिर नहीं आयेगी मेरे बाद
कोयल भले ही कूक सुनायेगी मेरे बाद
९८२.
कुछ तो रहेगा दिल में कसकता हुआ जरूर
माना कि मेरी याद न आयेगी मेरे बाद
९८३.
यह बेबसी की रात, ये बेचैनियाँ, ये ग़म
यह प्यार की जलन कहाँ जायेगी मेरे बाद !
९८४.
आँखें उठाके आज न देखो गुलाब को
खुशबू मगर न दूसरी भायेगी मेरे बाद
९८५.
ख़ुद ही हम मंज़िल हैं अपनी, हमको अपनी है तलाश
दूसरी मंज़िल पे कोई लाख भटकाये, तो क्या !
९८६.
यह तो आदत है कि जो आह किये जाता हूँ
दर्द होता था जहाँ, अब तो वो दिल ही न रहा
९८७.
शुरू में तो, दो-चार थे सुननेवाले
मगर बढ़ते-बढ़ते सभा बन गयी है
९८८.
कहाँ मीर-ग़ालिब की ग़ज़लें, कहाँ मैं !
बनाने से थोड़ी हवा बन गयी है
९८९.
कोई तो किरण एक आशा की फूटे
अँधेरे बहुत सिर उठाये हुए हैं
९९०.
जहाँ चाँद-सूरज हैं. तारे हैं लाखों
दिया एक हम भी जलाये हुए है
९९१.
गुलाब उनके कदमों में पहुँचे तो कैसे !
सभी ओर काँटे बिछाये हुए हैं
९९२.
कारवाँ यों तो हजारों ही जा रहे हर रोज
दूर मंज़िल हुई जाती है हर क़दम के साथ
९९३.
मंज़िल हजारों बार बगल से निकल गयी
जाने ये कैसी राह मेरे साथ रही है
९९४.
कुछ तो है और भी इन ख़ाक के पुतलों में ज़रूर
होके जुगनू भी, सितारों से बात करते हैं
९९५.
मौत आँखें दिखाती रही
ज़िंदगी मुस्कुराती रही
९९६.
चले जो हम तो चली साथ-साथ क़िस्मत भी
हरेक मुकाम पे पहले ये बेवफ़ा ही गयी
९९७.
ज़हर को पीके भी ओठों से बाँसुरी फूँकी
अँगूठा साँप के फन पर दबाके रक्खा है
९९८.
है घड़ी भर दिन अभी खिलते हैं क्या गुल, देखिए
यों तो हरदम लग रही है, शह हमारे मात की
९९९.
हमने माना, इसी मंज़िल को तरसते थे फूल
पर, बहारों की भी सूरत कभी ऐसी तो न थी
१०००.
ज़िंदगी ख़ुद ही उतरती गयी है प्याले में
वरना पीने की हमें लत कभी ऐसी तो न थी
१००१.
ज़िंदगी, सच है मिली दर्द की लज्जत के लिए
कोई यह भी तो कहे, दर्द का हासिल क्या है
१००२.
ज़िंदगी मरने से घबराती भी है
चढ़के सूली पर कभी गाती भी है
१००३.
जान देना तो है आसान बहुत लपटों में
उम्र भर आग में तपना मगर आसान नहीं
१००४.
क्या हुआ ! ज़िंदगी में हमने भी
नींद थोड़ी जो ख्वाब की ले ली !
१००५.
ज़िंदगी हमको पिलाती है ज़हर के प्याले
और पायल भी बजाती है हर क़दम के साथ
१००६.
जो चाहे समझ लीजिए, मरजी है आपकी
गाना है बेबसी मेरी, कुछ और नहीं है
१००७.
तुझसे भी बड़ी चीज़ है कुछ तुझमें ज़िंदगी
तड़पा किये है हम जिसे पाने की चाह में
१००८.
कहाँ से पायी थी खुशबू, ये रंगतें इतनी !
गुलाब रहके भी काँटों में तू खिला ही रहा
१००९.
चमके न बाग़ में, न किसी हार में गुँथे
कुछ फूल तो खिलकर भी यहाँ अनखिले हुए
१०१०.
चलेंगे साथ न मिलकर, ये जानते हैं, मगर
नये-पुराने में, थोड़ा-सा तालमेल तो हो
१०११.
न था कोई दिल का खरीदार तो क्या !
चले, सबसे हम, राह पर, मिलते-मिलते
१०१२.
डाँड़ हम खूब चलाते हैं, फिर भी क्या कहिए !
नाव दो हाथ ही रहती है भँवर के आगे
१०१३.
था लिखा क़िस्मत में तो, काँटों से हरदम जूझना
कोई दिल को दो घड़ी फूलों में उलझाये, तो क्या !
१०१४.
पहुँचते लोग तो सोये ही सोये मंज़िल तक
जगे हुए भी मगर हम तो दो क़दम न चले
१०१५.
पता नहीं था कि कटकर गयी है मंज़िल से
वह राह, हमने जो धर ली थी नौजवानी में
१०१६.
फूलों से हार गूँथके लाना है और बात
काँटों से ज़िंदगी को सजाने में हुनर है
१०१७.
बेझिझक, बेसाज, बेमौसम के, आ
ग़म की बारिश है तो आ, फिर जमके आ
१०१८.
खूब झम-झमकर बरस काली घटा
यों न दम लेती हुई थम-थमके आ
१०१९.
आज की रात तो हर रंग में खिलते हैं गुलाब
फ़िक्र कल की किसे, आयें कि नहीं आयें हम
१०२०.
यों तो रहती है हरेक फूल की रंगत में बहार
फूल का रंग, बहारों से अलग होता है
१०२१.
हमने पायी है वही टूटते दिल की तस्वीर
ज़िंदगी ! चाँद-सितारों में तुझको देख लिया
१०२२.
हम है आजाद सदा और बँधे भी हरदम
हम भी ठीक अपनी जगह, तुम भी सही अपनी जगह
१०२३.
सिर्फ सुर-ताल मिलाने से कुछ नहीं मिलता
तार दिल के भी मिलाओ कभी झंकार के साथ
१०२४.
सारी दुनिया की है खबर हमको
एक अपनी खबर नहीं मिलती
१०२५.
हम खड़े हैं लहर पे बुत की तरह
और बहते हैं किनारे, क्या खूब !
१०२६.
हमारे दिल पे भी गुजरे हैं हादसे कितने
मगर वे ऐसे नहीं हैं कि हर किसीसे कहो
१०२७.
हाथ डाँड़ों पर नहीं क़िस्मत को कहते हैं बुरा
नाव ख़ुद है डूबती जाती, समंदर क्या करे !
१०२८.
हमें दोस्तों ने भुला दिया, हमें वक्त ने भी दग़ा दिया
उन्हें ज़िंदगी ने मिटा दिया, जो निशान दिल पे उभर गये
१०२९.
साजों को ज़िंदगी के, बिखरना नहीं था यों
कुछ तो हुई थी भूल किसीकी सँभाल में
१०३०.
रहे हैं एक-से तेवर न ज़िंदगी के कभी
नहीं हैं चाँद और सूरज भी एक-से ही सदा
१०३१.
दो घड़ी चैन से बैठे नहीं हम यों तो कभी
देखिए क्या भला इस दौड़ का हासिल बैठे
१०३२.
वे सुर कुछ और ही हैं जिनसे यह नग़मा निकलता है
ये वह धुन है जो हर एक तार पर गायी नहीं जाती
१०३३.
वे और हैं जो बजाते हैं ज़िंदगी का सितार
छुआ था हमने तो जैसे ही, तार टूट गया
१०३४.
सारे उपवन पे छाये गुलाब
गंध कब किसके रोके, रही !
१०३५.
कबूल कैसे हो, चढ़ती है जहाँ सिर की भेंट !
मैंने की है महज़ लब्ज़ों की अदाकारी, नज़र
१०३६.
किस अदा से वो मेरे दिल में उतर जाता है !
जीतकर जैसे जुआरी कोई घर आता है
१०३७.
जिस पर नजर पड़ी न बहारों की आज तक
ऐसे भी एक गुलाब गया में हुए हैं हम
१०३८.
देवता हम नहीं, न पत्थर हैं
माफ कुछ तो है आदमी के लिए
१०३९.
हम ऐसे होश से बाज़ आये, दूर-दूर हों आप
ये बेसुधी ही भली है कि हैं गले-से-गले
१०४०.
काम अपना है उनको पहुँचाना
ख़त सभी दूसरों के नाम के हैं
१०४१ .
सिवा मेरे भगीरथ है कौन हिन्दी गज़ल-गंगा का
न्याय तो होगा कभी दूध क्या, पानी क्या है
१०४२ .
यह ज़िंदगी तो कट गयी काँटों की डाल में
रखते हो अब गुलाब को सोने के थाल में !
१०४३.
कोई तो छिपके सितारों से देखता है हमें
खुली हुई हैं अँधेरे में खिड़कियाँ कैसी !
१०४४.
यहाँ गुलाब की रंगत का मोल कुछ भी नहीं
कलेजा चीरके काँटे पे दिखाना होगा
१०४५.
कसो तो ऐसे कि जीवन का तार टूट न जाय
पड़े जो चोट कहीं पर तो रागिनी ही ढले
१०४६.
कुछ ऐसे साज़ को हमने बजाके छोड़ दिया
सुरों को और सुरीला बनाके छोड़ दिया
१०४७.
तड़पके आ गयी मंज़िल हमारे पाँव के पास
लगन को इतनी बुलंदी पे लाके छोड़ दिया
१०४८.
गुलाब ऐसे ही खिलते हैं हम, किसीने ज्यों
दिया जलाके मुक़ाबिल हवा के छोड़ दिया
१०४९.
ये सच है, सुर में सभीके मिलाया सुर हमने
मगर, सितार भी मन का बचाके रक्खा है
१०५०.
जाना कहाँ है, आये कहाँ से पता नहीं
कोई चलाये जा रहा, चलते रहे हैं हम
१०५१.
देखे जो कोई रंग हैं सौ-सौ गुलाब में
मौसम के साथ-साथ बदलते रहे हैं हम
१०५२.
बँधकर रही न डाल से खुशबू गुलाब की
कोयल न कूकती कभी सुर और ताल में
१०५३.
जतन से ओढ़के चादर तो ज्यों की त्यों धर दी
मगर, कहीं थे किनारी में सौ गुलाब खिले
१०५४.
भले ही साँप यह रस्सी में आ रहा है नज़र
न बीन है, न सँपेरा, कहीं भी कोई नहीं
१०५५.
गुलाब ! ऐसे भी क्या कम थी ये दुनिया !
मगर, रौनक तुम्हींसे बढ़ गयी है
१०५६.
दिल जो टूटा तो हरेक शहर में खुशबू फ़ैली
फूल भी हम जो खिलाते तो और क्या करते !
१०५७.
अभी तो राह में काँटे बिछा रहा है, गुलाब !
कभी ये बाग़ तुझे देखने को तरसेगा
१०५८.
यों तो हरदम नयी है ये महफ़िल, हर घड़ी सुर बदलते हैं इसमें
पर जो हम कह गये आँसुओं से, भूल जाने की बातें नहीं हैं
१०५९.
मिलेगा कुछ तो उजाला भटकनेवालों को
चिराग अपने लहू से जला रहा हूँ मैं
१०६०.
देखते-देखते आँखें चुरा गयी है बहार
याद भर रह गयी फूलों के मुस्कुराने की
१०६१.
कोई मंज़िल है मिली गुमरही में भी हमको
यों तो दुनिया की निगाहों में हम रहे नाकाम
१०६२.
हो न मंज़िल का कोई पता भी तो क्या !
छोड़कर कारवाँ बढ़ गया भी तो क्या !
राह वीरान, दिन ढल रहा भी तो क्या !
चलनेवाला अभी दिल में हारा नहीं