har moti me sagar lahre

काया तो मल-मलकर धोयी
पर कब तक ठहरेगी, यह भी बता सकेगा कोई !

चले गये हों कितने ही नर
निज काया का मोह छोड़कर
पर मैंने अब तक भी इस पर
निज आसक्ति न खोयी

माना, यह जड़ मोह वृथा हो
तन फिर भी मिल जाय नया हो
पर क्या मिलें, विरह जिनका हो
जागे जब चिति सोयी !

हो भी आगे की तैयारी
क्यों न मुझे काया हो प्यारी !
सह व्याधियाँ इसीने सारी
आत्मिक-ज्योति सँजोयी

काया तो मल-मलकर धोई
पर कब तक ठहरेगी, यह भी बता सकेगा कोई !