har moti me sagar lahre

रत्न-हार ग्रीवा में सदा हूँ जिसे टाँगे
टिकेगा भी कब तक काल-दंशनों के आगे !
धीरे-धीरे मंद हो रही है दीप्ति इसकी
एक-एक कर के टूटने लगे हैं धागे