har moti me sagar lahre

रूप नहीं उसका ही, स्वर्ग से चुरा जो लाया
दर्पण में दर्पित हो जिसे, नित नया सजाया है

नहीं उसका ही, होंठ चूम, कलेजे से लगा
जिसने उसे बाहुओं के घेरे में छिपाया है

रूप उसका भी है, पलटकर जिसने देख लिया
जिसने उसे सुना है, पढ़ा है और गाया है

स्मृति की मंजूषा में सँजोये चिर-काल जिसने
जब जी में आया, उसपर ध्यान भी लगाया है