har subah ek taza gulab

ख़त्म उन पर हैं सभी शोख़ियाँ ज़माने की
जिनको सूझी है सलीबों पे चढ़के गाने की

है समझने की नहीं और न समझाने की
आँखों-आँखों वो अदा तेरे लिपट जाने की

है वही शोख़ हँसी मुँह पे शमा के अब भी
फ़र्क आया न कोई मौत से परवाने की

कौन होगा तेरी गलियों में हम-सा ख़ानाख़राब
उम्र भर याद न आयी जिसे घर जाने की !

और दो-चार घड़ी खेल उन आँखों में, गुलाब!
फिर मिलेगी न तुझे रात परीख़ाने की