har subah ek taza gulab

बेझिझक, बेसाज़, बेमौसम के आ
ग़म की बारिश है तो आ, फिर जमके आ

ख़ूब झम-झमकर बरस काली घटा
यों न दम लेती हुई, थम-थमके आ

हम उन्हें कैसे सुनायें दिल की बात !
कह रहे हैं– ‘बोल पर सरगम के आ’

और दम भर, और दम भर आँधियो !
दो न दस्तक दर पे यों शबनम के आ

जोहना क्या मुँह बहारों का, गुलाब !
तुझको आना है तो बेमौसम के आ