har subah ek taza gulab

हम उनके प्यार में जगते रहे हैं सारी रात
ख़ुद अपने आप को ठगते रहे हैं सारी रात

ये क्या हुआ कि सुबह उनकी एक झलक न मिली
गले से आके जो लगते रहे हैं सारी रात !

धधकके बुझ भी गये हों, हम उनसे अच्छे हैं
जो अनबुझे ही सुलगते रहे हैं सारी रात

हज़ारों बार जिगर में समा चुके हैं, मगर
वे अजनबी-से ही लगते रहे हैं सारी रात

कभी तो पायेंगे काग़ज़ गुलाब की रंगत
हम अपने ख़ून से रँगते रहे हैं सारी रात