hum to gaa kar mukt huye

कुछ भी और न लूँगा
लूँगा तो तुझको ही लूँगा जब अपने को दूँगा

उस दिन अपने बीच न होगी यह चाँदी की रेखा
शत रूपों में सतत जिसे मैंने लहराते देखा
हाथ पकड़कर पार लगाना जब जल में उतरूँगा

दाता भी है काल और है वही बड़ा तस्कर भी
पल में करता हरण हमारा, सब कुछ दे देकर भी
कुछ तो ऐसा होगा ही जो उससे बचा सकूँगा

यह संसार देख ले तुझसे मेरा है जो नाता
सारे मोह छुड़ा आया हूँ पर यह छूट न पाता
कब अपने मन की इस कल्पित कारा से निकलूँगा

कुछ भी और न लूँगा
लूँगा तो तुझको ही लूँगा जब अपने को दूँगा