jyon ki tyon dhar deeni chadariya

मंगलाचरण
मुक्ति नहीं भुक्ति चाहता हूँ विरागमयी
अनुरक्ति में बस अनासक्ति भी बनी रहे
भोगों का न दास बनूँ, भोग बनें दास मेरे
निर्गुण-निष्ठा में सगुण भक्ति भी बनी रहे
सत्य को न छोडूँ चाहे छूट जाए जग सारा
नष्ट हो अहम् पर आत्मशक्ति भी बनी रहे
दे न महत अर्थ पा बनूँ न असमर्थ कभी
तृप्ति तो मिले पर अतृप्ति भी बनी रहे

जग की उपेक्षा क्या, अवज्ञा क्या, अस्वीकृति क्या
सिर पर तो मेरे सदा जगपति का हाथ है
युग न हो छोड़ दिया, सबने मुँह मोड़ लिया
चिंता पर क्यों हो, रहा वह तो साथ-साथ है
बिना किसी सेवा के ही वेतन देता जो मुझे
सेवक हूँ उसका मैं अनाथ का जो नाथ है
स्वरधारा प्रकट भले ही पंक से हो यह
पदरज पा उसीकी हुई गंगा पुण्यपाथ है