kach devyani
सप्ताश्व-जुता रवि-रथ जिनसे द्रुतगति भयभीत निकलता था
जिनकी संजीवन-जड़ियों में सुख-स्वप्न सुरों का जलता था
मन्त्रित मख-शाला में जिनकी सूर्यास्त-जलद-से पग धरते
मृगशिशु बन देवकुमार चपल पूर्णाहुति का गौरव भरते
दैत्यों की जय से ध्वनित सदा जिनकी मणिमय घाटियाँ रहीं
उन तुंग उदय-गिरि-श्रृंगों पर करता था कच विश्राम कहीं
हिम-शिखरों से उठता-गिरता पथ उधर स्वर्ग की ओर गया
इस ओर दानवों का प्रदेश प्रतिनिमिष लिये था रूप नया
आश्रम वह, जहाँ बिताये थे साधना-सिद्धि के कठिन प्रहर
निष्पंद पड़ा गिरि-चरणों में लगता था अब कितना मनहर
वे खग-मृग-सहचर, विटप-बेलि वे हास्य व्यंग्य की फुलझड़ियाँ
वह गो-चारण, वह पुष्प-चयन वे निर्मल क्रीड़ा की घड़ियाँ
कैशोर-रत्न वह जीवन का था वहीं गाँठ से छूट, रहा
प्राणों में अब नवयौवन का मधुमय निर्झर था फूट रहा
अब शेष पाठ-सा सम्मुख था वन-हृदय प्रकृति का खुला हुआ
ज्योत्स्ना-जलनिधि से उठता था विधु-स्वर्ण-कमल पय घुला हुआ
नूपुर पहने थीं नाच रही उर्मिल सपनों की छाया में
आकुल सुख की स्मितियाँ चंचल बेसुध अपनी ही माया में
चेतनता की अनुभूति सदृश एकांत प्रवाहित प्रहरों पर
नीरवता की आत्मा जैसे चलती अनंत की लहरों पर
दिख पड़ी क्षितिज-तट-पनघट पर सहसा दे रही विदाई-सी
सुरमोहक सिद्धि सुधा-घट ले तारांबर से सज आयी-सी
माधवी लता के आनन पर मधुपावलियों का घेरा था
अंतिम प्रवास की रजनी का मानो हो रहा सवेरा था
स्मिति-तड़ित-रहस्य-प्रपात-चकित जावक-ज्योतित हिम-चरणों पर
कच का मन तारा-दीप-सदृश उड़ तैर चला विधु-किरणों पर
उत्कंठित यौवन-शिखरों से झरते सहृदयता के झरने
शीतल फुहार-सी वाणी से छवि का अभिषेक लगे करने
‘तुम कौन जलधि से संगम को हिम-सरिता-सी अभिसार किये
आ रही चली राका-निशि में स्वर्णिम किरणों का हार लिये
हरियाली की कंचुकी सुघर मलयज की साँसों में कँपती
कलियों का मिस ले खिलती-सी स्मिति जैसे अधरों से चँपती
कौतूहल-बुदबुद फूट रहे नीले नयनों के कोनों से
जैसे मकरंद टपकता हो निःस्पंद कमल के दोनों से
अंबर के चुंबन को उठती घनमाला-सी अलकें फैला
किन शून्य गुहाओं से चलकर, पथ धरे क्षितिज का मटमैला
कुछ पूछ रही-सी तरु-तृण से नयनों की नीरव भाषा में
सतरंगे चित्रित स्वप्न सजा हिम-सी घुलती अभिलाषा में
स्वर्णांचल धरे उँगलियों से लहराती विजय-पताका-सा
राका-शशि-चुंबन को आकुल उड़ती उन्मत्त वलाका-सा
उतुंग तरंगित शिखरों पर आलोक उतरता-चढ़ता-सा
स्वर्णिम मेघों की छाया-सा विधु-संग जलधि में बढ़ता-सा
तुम कौन आह गिरि-सरिता-सी लघु-लघु उपलों से टकराती
आ रही विजन में खोयी-सी ज्यों दीपक की उड़ती बाती’
दक्षिण समीर के झोंकों से प्राणों में पहली हूक उठे
जैसे बसंत की श्याम पिकी तरु के अंचल से कूक उठे
बाँसुरी बजी अनुरागमयी जैसे अवलंबन ले तरु का
सहसा नीले अंबर-पथ पर चलते-चलते विधु-यान रुका
‘जिसने भोली सुंदरता को कंचन का भवन दिखाया है
जो निर्जन कानन में मुझको चुपचाप बुलाकर लाया है
जिसके छाया-चुंबन की मैं अभिलाषा हो साकार उठी
रजनी की बाँहों से गिरते हिमकर को देख पुकार उठी
‘रोमांच-सदृश मानस-सर में जो खिला सहस्रों कमल गया
जिसका आलिंगन पाते ही शैशव यौवन में बदल गया
इस निर्जन में मैं आज उसी सुख के सपने को ढूँढ़ रही
जो जगते ही छिप गयी उसी स्मृति में अपने को ढूँढ़ रही’
छककर अपने ही सौरभ से सकुचाये जैसे सोनजुही
रंगों की तूली फिरते ही सुंदरता मानो मौन हुई
भीगे पट तट पर खड़ी रहे जैसे ऊषा सद्यःस्नाता
मलयज घुँघराली अलकों में छवि के रहस्य हो सुलझाता
कुछ तार चढ़ाकर जीवन की अनमिल झंकार मिलाता-सा
कच धीरे-से गुनगुना उठा वीणा के स्वर में गाता-सा
‘उर्वशी चकित देखी मैंने घबरायी मंथन के डर से
जब अनाप्रात पद्मिनी सदृश निकली थी वह रत्नाकर से
कटि पर मधु का घट, वाम-हस्त पूर्णेन्दु चषक-सा धरे हुए
अभिनंदित देव-दानवों से दृग में कौतूहल भरे हुए
वह भी कब इतनी सुंदर थी ले जाकर जिसको सुरपुर में
सुरपति ने प्रिया-नयन-जल से अभिषिक्त किया अंतःपुर में
पर सुंदरता की शोभा क्या तितली के पंख लगा उड़ ले
यौवन के भीने कुंजों पर, फूलों के अंतर से जुड़ ले
नत मौन तटस्थ बनी रहकर मकरंदमयी चिर-पूजित जो
किस वन-वसंत के हाथ बिकी वह दीन पिकी-सी कूजित हो
सपना देखा करते जिसका सम्राट विजय-क्षण अपने में
वह शोभा निखिल भुवन-मन की क्या देख रही थी सपने में
खुल व्यस्त लजीली ग्रीवा से श्यामल अलकें छू भूमि रहीं
तुम किसके शर से बिँधी विकल वन-वन हरिणी-सी घूम रही’
रुककर सागर-लहरी तट पर मणियाँ समेटने लगती ज्यों
तनु-तंत्री में मूर्च्छना सदृश मृदु व्यथा ऐंठने लगती ज्यों
कलिका-से कोमल अधरों से सुरभित साँसों में सनी हुई
कौमार्य-काकली फूट पड़ी आक्रोश-सजल-सी बनी हुई
‘मैं क्या उत्तर दूँ! जीवन में जिसने यह आग लगायी है
जब वही अपरिचित-सा पूछे–‘यह लाली कैसी छायी है?’
सुन जिसको सोने की मछली मौक्तिक-गृह के बाहर निकले
सूर्यास्त-जलधि-वेला पर निज प्रतिध्वनि से विस्मित नाविक-से
तुम पूछ रहे मुझसे जो वह पूछो इन दुखिया आँखों से
श्यामल भ्रू-शर से बिँध उड़ती तितली की दोनों पाँखों से
देखा था पहली बार तुम्हें जब मैंने लतिका-अंचल से
अकलंक कलानिधि-से उठते धुलकर नभगंगा के जल से
श्रद्धा की नतशिर भेंट लिये कोमल कुसुमों के दोने में
नि:श्वास सुधा-धारा भरते निर्जन के कोने-कोने में
बन कमल लहरियों में अपना स्मितिमय प्रतिबिम्ब खिलाते-से
पूनो के विस्मित जलधर-से ऊषा से नयन मिलाते-से
उस दिन ये चंचल आँखें ही मन को ले अपने साथ उड़ीं
अनुनय-मनुहारें की लाखों मन की ममता ने, पर न मुडीं
जब तुम खोये-से रहते थे वट-तरु-सम्मुख व्रत-साधन में
मैं तितली-सी मँड़राती थी उस तपोभूमि के प्रांगण में
मैं अपने कोमल सपनों का संसार सजाती थी तुमसे
नव पारिजात की माला-से जो उतरे थे कल्पद्रुम से
तुम ऐसे विद्यालीन रहे, पुस्तक से आगे बढ़ न सके
पढ़ लिए शास्त्र-इतिहास सभी, नारी के मन को पढ़ न सके
मैं कर सोलह श्रृंगार चली, नभ के तारों ने टोक दिया
जब-जब आकुलता मचल पडी, तब-तब लज्जा ने रोक दिया
कल देख विदा का आयोजन मन और उपेक्षा सह न सका
आँसू में डूबी आँखों में अभिमान रूप का रह न सका
सागर से मिलने भादों की मदभरी नदी-सी बढ़ आयी
मैं नील जलद-प्राचीरों से बिजली-सी बाहर कढ़ आयी
तुम बालारुण से प्रात चले जाओगे, लज्जा जडी हुई
मैं ऊषा-सी उदयाचल पर चुपचाप रहूँगी खड़ी हुई
कर पार चुके होगे द्रुत-पद तुम किरणों के कंचन-झरने
मैं लुटी पुजारिन संध्या-सी जब आऊँगी पूजा करने
अनसुनी पिकी की तान सदृश जब निर्जन में लहराऊँगी
मेरे प्रसूनधारी वसंत, मैं तुम्हें कहाँ फिर पाऊँगी’
छायाकृति कँपकर मौन हुई जल में चंचल विधु-लेखा-सी
दृग के तारों से फूट चली पीड़ा की जलती रेखा-सी
जैसे सुगंध से अंधी हो लहरा मधुऋतु-कोकिला उठे
कुंजों में कुसुम-समूहों में पगली-सी बन खिलखिला उठे
विस्मित ऋतुराज कुसुम चुनता यह देख ठगा-सा रह जाये
उत्फुल्ल कपोलों से रह-रह करुणा-धारा बह-बह जाये
कच ने अपराधी शीश झुका द्रुत जाने की इच्छा त्यागी
जल-भरे नलिन-से नयनों में मधुकर की सुप्त व्यथा जागी
अपनी ही खोई आत्मा-सी फणवाले नयनों के मणि-सी
अति दूर विदेशी कुंजों की छाया में परिचित पिकध्वनि-सी
अस्पष्ट नयन-जल में तिरती दिख पढ़ी भाग्य की रेखा-सी
वह मूर्ति अचल-शशि-शेखर के सिर चढ़ी शरद-शशि-लेखा-सी
पूर्णन्दु-प्रथा प्रतिभासित-से जलनिधि से जैसे ज्वार उठे
आकुलता की भाषा बनकर पुलकित मन-प्राण पुकार उठे-
‘प्रच्छन्न झलक देखी जिसकी चपला-सी घन-पट में दिपती
संदेश दे गयी मधुऋतु का पिकवदनी जो छिपती-छिपती
क्या तुम्हीं अजान विकलता की हिम-शिला हृदय पर अड़ी रही?
दीपक की चंचल छाया-सी कोने में नतमुख खड़ी रही?
अपनी आशा की प्रतिध्वनि-से गुंजरित पवन-नभ-जल-थल में
संकेत पढ़ा करता था मैं जिसके सरिता की कल-कल में
तुम कुसुम-हृदय में लिखती थी वे चित्र किरण-तूलिका लिये
जो प्रात-तुहिन बन ढुल जाते मुझको मेरा प्रतिबिंब दिये
मैं समझ नहीं कुछ पाता था उलझन बढ़ती ही जाती थी
सम्मुख कर-पल्लव-पात्र लिये लतिका सौ-सौ बल खाती थी
नव अगुरु-धूम-सी ऐंठभरी मन में मरोड़-सी उठती थी
अनदिखे चरण की झंकृति में चेतना चाव से लुटती थी
“नूपुर वह कितना धन्य, आह ! जो पीता चरणों की लाली!”
मैं शीश झुकाकर करता था मन के माणिक की रखवाली
बह काल-प्रवाह गये कितने हम दोनों रहे बिलखते ही
सरिता के युगल कगारों-से अपना प्रतिबिंब निरखते ही
पौरुष की हँसी उड़ाती-सी इंगित करती पूर्णिमा मुझे
मेरी मुकुलित माधवी लते! तुम कर न सकोगी क्षमा मुझे!
पिघले घन की लट खोल खड़ी बिलगाती हीरक-हारों से
बिजलियाँ नहाती हैं जिसके आँगन में रजत-फुहारों से
मंदाकिनि-शीतल पवन जहाँ निशि का सारा श्रम खोता है
जिसके वातायन से नीचे तारा-पथ झिलमिल होता है
नंदन के दक्षिण ओर वहीं मेरा नन्हा-सा राजभवन
क्षीरोदधि-सा पाकर तुमको, इंदिरे! करेगा मधुर स्तवन
उर पर सज मौक्तिक हार वहाँ दृग में चल काजल के डोरे
सुर-वधुएँ जवा-प्रवालों से रँग देंगी ये पगतल गोरे!
उर के आवेगों से विह्वल कच ने देखी वह छवि अजान
थी खड़ी देवयानी जैसे नववधू, विनत मुख, सजल प्राण
लतिकांचल में युग जुगनू ज्यों चंचल स्मिति का उजियाला ले
थे झुके स्नेह से भरे नयन सतरंगी लौ की माला ले
अलकें उड़ पलकों पर आतीं ज्यों हास न वह निर्धूम रहा
कंचन की धरती पर मानो नीलम का पौधा झूम रहा
कंपित सपनों की तूली से अंकित जिसकी स्वर-धारा हो
आशा ने लज्जित यौवन का सूने में चित्र उतारा हो
उन्माद, रूप की पीड़ा का, भरता प्राणों में दृढ़ता हो
ऊषा के अरुण कपोलों पर पाटल का पानी चढ़ता हो
‘इतनी पुलकन, उच्छ्वास! रुको, मैं चित्र अभी पूरा कर लूँ
तट की दो पतली बाँहों में कैसे पावस निर्झर भर लूँ
यह गंध नहीं बन हँसी उड़े पगली कोकिल चुप ही रहना
मैं फूल रही माधवी-लता, मलयानिल धीरे-से बहना
क्या हानि, तृषित चातकी! तुझे सुख-स्वाति निमिष भर बाद मिले
प्रिय घन को विकल प्रतीक्षा की तड़पन का कुछ तो स्वाद मिले
चंचले, देख नभ हँसता है तेरे इस सुख की सीमा पर
गौरवमय नीरवता पढ़ ले, सरिते! कातर स्वर धीमा कर
नारीत्व कहीं न सरल समझे मेरे मन, कुछ तो मान सीख
तू स्वयं भिखारी-सा क्यों है जग जिससे पाता प्रणय भीख
लय हो जाती संध्या-सी ज्यों गायिका श्याम-स्वर-लहरी में
तितली के पर की हिम-कणिका जैसे उज्जवल दोपहरी में
स्वप्निल स्मिति-सी जब चुंबन से चेतना अधर की जाग गयी
दिनकर को आते देख वधू ऊषा ज्यों सकुचा भाग गयी
छाया-सी छिपी क्षितिज-पट में विधु के पीछे-पीछे हट कर
जल भरती विद्युत्-बाला-सी नीली नभ-सरिता के तट पर
कच ने देखे दो नयन दूर तारों-से तम में डूब चले
पूर्णेंदु बिखर कर पारे-सा चमका चरणों की दूब तले
ऊषा उदयाचल-शिखरों पर करती कंचन की झड़ी रही
अस्पष्ट मधुर अनुभूति विकल मन में काँटे-सी गड़ी रही
संज्ञा-पट पर चलचित्र चकित नत-नयन निरखता अपने में
कच खोया-सा चुपचाप चला जगकर कोई ज्यों सपने में