kach devyani
द्वितीय सर्ग
खग-रव की विदा-भैरवी सुन उन्मीलित-लोचन-कमल-पत्र
जैसे उदयाचल-चरणों से उठता प्रभात शिर-ज्योति-छत्र
कुछ भूला-सा कच चिर-परिचित भार्गव-स्नेहाश्रम छोड़ विकल
चल पड़ा प्राण सा स्वर्गोन्मुख लेकर नवजीवन का संबल
विस्मृत सुख-स्वप्नों की स्मृति-सी मन में अज्ञात तरलता थी
वह आकुल-यौवन-आवेदन जिसमें शिशु-सुलभ सरलता थी
वह दृश्य भिन्नस अब कितना था दूरस्थ क्षितिज-तरु-छाया में
पूनो के मधुर मिलन-जैसा झिलमिल किरणों की माया में
जीवन के व्यस्त दिनों में ज्यों स्मृति-अंतःसलिला, छुईमुई
यौवन की प्रथम प्रणयिनी की सपने में जिससे भेंट हुई
आश्रम के कुंज-कुटीरों से कुछ आगे तिरछी झुकी हुई
स्वर्गगा विद्युत्-सलिला-सी हेमाद्रि-शिखर पर रुकी हुई
शशि-भुज-पाशों से ज्योत्स्ना-सी अँगड़ाई ले जो भाग गयी
बन उषा खड़ी थी वह, जिसकी किरणों से भर दी माँग गयी
नभ-नील-सरोवर में तन की उज्ज्वलता कंपन भरती थी
पावन छवि-छींटों-सी जिससे तारावलि नीचे झरती थी
सरि-बिंब सरोरुह-सा कोमल आनन स्मिति में खिल जाता-सा
कच-मिस उड़ते चंचल अलि को सौरभ के हाथ बँधाता-सा
करता था नीरव प्रश्न झुका युग मीन-नयन निःस्पंद किये
चंचलता जिनकी फूट पड़ी लहरों के सौ-सौ छंद लिये
‘मेरी तम रजनी के प्रभात देखो न मुझे यों चकित मौन
छिपकर रसाल की डालों पर, देखो, गाती है वहाँ कौन
यह वेत्रवती का खर प्रवाह ये हवन-धूम से भरे गेह
प्रिय अतिथि! आज इन तरुओं के है सुमन-सुमन में नया स्नेह
स्वर्गंगा का वह स्रोत कहाँ जो शीतल कर दे तप्त गात्र
हम पाते इस जड़ पर्वत पर हिम की नन्हीत निर्झरी मात्र
माना इन कुंजों में खिलते वे पारिजात के फूल नहीं
फिर भी इनकी शीतल छाया प्रेमी पाते हैं भूल नहीं
हम यहीं झेल लेंगे सहास मिल-जुलकर तपन प्रतीक्षा की
जब तक न पिता की अनुमति से रचना होगी नव दीक्षा की!
किरणों की तूली से क्रमश: चित्रित लतिका हिम-भरिता सी
तिरछी होकर पथ पर गिरती विद्युत-दीपित गिरि-सरिता-सी
कच ने देखी वह मधुर मूर्ति नयनों में प्रेम अपार लिये
थी स्वयं खड़ी ज्यों बनदेवी वनफूलों से श्रृंगार किये
मलयज की लघुतम लहरी ज्यों युग कलियों का गुंफन चीरे
लज्जित प्राणों की धड़कन-से हिल उठे अधर धीरे-धीरे
“तुम! तो फिर शेष परीक्षा है, मैं तो एकाकी जाता था
पग में लिपटी हरियाली की उलझन, प्राणों का नाता था
पर स्फूर्तिभरा आवेग कहाँ वह यौवन का स्पंदन इनमें!
लावण्य-पुंज-सा आनन यह जो भाव नये भरता दिन में
कर स्पर्श न कर पाते जिसका आलिंगन में मन शंकित हो
यज्ञानल-पट पर श्वेत-वसन तुम सरस्वती-सी अंकित हो
क्यों पुनर्मिलन में काँप रही चेतना-चंद्रिका द्वंद्वभरी
जैसे वर्जित भू पर विकसी पाटल-कलिका मकरंदभरी
प्रतिध्वनि-सी गूँजी निर्जन से जैसे पिक के पंचम स्वर का
उत्तर देती हो भ्रमरावलि अरुणिम किसलय-अंचल सरका
‘पाटल-पँखुरी के पंखरँगा समर स्वर्ण-मधुप-शिशु हँस मुड़ता
ज्योत्स्ना-हिम-घन-सा दूर गया, आ जाय न फिर उड़ता-उड़ता
कल की अनन्यता स्वप्न, आज उलझन यह कैसी ले ली है
क्षण-क्षण परिवर्तनशील हृदय! सचमुच तू एक पहेली है
संसृति का गूढ़ प्रकाश-केंद्र अमरत्व-विभा से ओत-प्रोत
जिनके चरणों में बैठ पिया तुमने नवजीवन-ज्ञान-स्रोत
संतान उन्हीं की एकमात्र मैं मुक्त चपल निर्झरिणी-सी
इस तपोभूमि में फिरती हूँ बाणों से बेधी हरिणी-सी
अब भी खोये-से देख रहे धृत मृगी अजान अहेरी तुम
जैसे पलकों से पी लोगे सारी सुंदरता मेरी तुम!
पतझर संध्याकुल पत्र एक जड़ प्राण सदृश जिसमें अटका
छूते वासंती वायु उठे चीत्कार विटप ज्यों मरघट का
जैसे लपटों की स्मितियों से क्षण-भर शव में जीवन जगता
उस रंजित झिलमिल पट में से वह हिलता-डुलता-सा लगता
बुझते क्षण लौटी अंतर की चेतना तप्त अंगारे-सी
हिम-श्वेत विभा ले फूट पड़ी कच के अधरों से पारे-सी
‘गुरु-कन्या, भगिनी तुम मेरी श्रद्धा की प्रतिमा प्रभापूर्ण
अब उसकी याद दिलाओ मत जो स्नेह-स्वप्न हो चुका चूर्ण
वह पाप हृदय का, आँखों का, स्मृति में भी उसके पाप छिपा
तम-तस्कर-सा दिन उगते ही भय खाकर अपने आप छिपा
इस पावन नव छवि से मंडित तुम कितनी सुंदर आज, बहन!
स्वर्गंगा की लघु लहरी-सी तारक-आभा का चीर पहन!
जैसे मुकुलित लतिका-शिर पर विद्युत का प्रखर प्रवाह गिरे
शशि के भ्रम मुग्ध चकोरी ज्यों खाकर अंगार कराह फिरे
‘परिणय-क्षण सुनकर नयी वधू वैधव्य-कथा निज पति से ही
ज्यों चीख उठे पा बाँहों में केवल साँसें छाया-देही
कवि-बाला स्तब्ध पुकार उठी हिम-मूर्तित ग्रीवा नीची कर
विधु-कला प्रात की-सी अंकित दीपक-लौ-सदृश प्रतीची पर
यह कैसा झूठा सत्य, भीरु वीरत्व, सदय निर्दयता है!
जो हृदय निमिष में चूर करे, यह भी अच्छी सहृदयता है!
तुम कीर्ति -कुमारी के प्रेमी, दे मुझे स्नेह की भीख रहे
है देवोचित आचरण यही, गुण यही यहाँ थे सीख रहे!
ओसों से प्यास बुझा तुम तो जा रहे प्रात के तारे-से
इस धारा-सदृश पुकार तुम्हें रोऊँ मैं लिपट किनारे से!
रोऊँ भी, पर रो लेने से मिलनी क्या शान्ति मुझे भी है!
उर में जलते जो अंगारे आँसू से कभी बुझे भी हैं!
बाड़व -सा बढ़ विक्षुब्ध रहा इस जल से तो बल इनका है
जल जाय न ज्वाला में पड़कर जो हृदय तिरस्कृत तिनका है
देखो माधवी-लता मुड़-मुड़कर कहती है क्रुद्ध दिवाकर से
‘क्या प्रीति यही तन बेध रहे तुम मेरा ज्वालामय शर से!
मधुकर-श्रेणी-सी वेणी में ये फूल तुम्हीं ने खोंसे थे
किरणों के कोमल हाथ बढ़ा हिम-अश्रु पलक के पोंछे थे’
मैं इस लतिका-सी छिन्न-भिन्न पथ में रो-रो मर जाऊँगी
मेरे बालारुण! आज यहाँ यदि रोक न तुमको पाऊँगी
यौवन-वासंती अंचल में शर-विद्ध मृगी-सी आँखें दो
तड़फड़ा उठीं उड़ जाने को जैसे तितली की पाँखें दो
‘मैं बहन तुम्हारी होती यदि कौमार्य-कठिन व्रत धारण कर
यह प्रिय-मुख-चंद्र चकोरी-सी देखा ही करती जीवन भर
पर संगम-स्थल शिशु-हृदयों के इस गुरु-गृह में मैंने देखा
‘परिणय-बंधन में बँध जाती प्राणों की परिचित विधु-लेखा
मिथ्या संकोच-भावना यह तोड़ो, पौरुष-निर्झर तुम हो
मेरे जीवन-वन के वसंत मेरे सुहाग के कुंकुम हो!
पीड़ा से गहरी साँस खींच कच देता-सा सांत्वना मुड़ा
खिलती सरसिज-पंखुरियों से गुंजित ज्यों बंदी मधुप उड़ा
“इतना न अधीर करो मन को अपने गौरव का ध्यान करो
यह प्रेम वंचना है, इसमें जीवन को मत बलिदान करो
यदि प्रेम सत्य भी होता तो कर्तव्य प्रेम से ऊपर है
स्वर्गों की आशा का दीपक कैसे जल सकता भू पर है!
क्षण भर का खेल, हँसी थी वह, सपना था भावुक आँखों का
कितने दिन टिक पाता चंचल हिमकण तितली की पाँखों का
यह जीवन रंगमंच-सा है प्रतिदिन नूतन नट आते हैं
क्षण भर अपना अभिनय दिखला छायापट में छिप जाते हैं
फिर नाम न सुन पड़ता उनका आये न कभी थे जैसे वे
सूने में हो जाते विलीन निज दल-बल से सँग ऐसे वे
चेतना नये पुतलों से निज संबंध जोड़ती जाती है
विस्मृति निष्ठुर कर से क्रमश: नित उन्हें तोड़ती जाती है
आजन्म स्वार्थ की भित्ति नयन नव चित्र सँजोते जाते हैं
प्रतिपल पूर्वांकित रंगों को आँसू से धोते जाते हैं
जो बीत चुके वे दृश्य सभी मन के सपने कहलाते हैं
जो मृत्यु-सेज के पास रहे वे ही अपने कहलाते हैं
क्षण के ऊपर उठकर चलना प्रज्ञा का रूप यही तो है
भावों का अंधड़ डाल गया जिसमें, भव-कूप वही तो है
सुख-दुख विचार मन के चंचल अस्तित्व न इनका भिन्न कहीं
भावना-घनों से दृग बाधित चेतना-चंद्र परिछिन्न नहीं
मानस की वृत्ति क्षणिक जिसको कहते हैं प्रेम, स्नेह, ममता
जीवन की कैसे हो सकती जीवन के क्षण-भर से समता!
जैसे सागर में लहरों की क्षण-क्षण नव निर्मित कृतियाँ हैं
जीवन-नभ में वृत्तियाँ सभी चल मेघों की आकृतियाँ हैं
इस क्षणिक विकलता में तुम निज जीवन का गौरव भूलो मत
संध्या के घन-सी किरणों के केशर-डोरों पर झूलो मत’
“तुम ज्ञानी पुरुष समर्थ किंतु अबला जड़-बुद्धि बिचारी मैं
अस्तित्व प्रेम में ही जिसका जीती हूँ अथवा हारी मैं
क्षण-भंग कुसुम नारी-जीवन विकसित जब तक न छुआ समझो
अंतिम पहला ही दाँव इसे छूते ही धूल हुआ समझो
वह धूल चरण में रह सकती आधार न उसको त्रिभुवन में
मिलता जिसको बस एक बार मधुमास प्रेम का जीवन में
मैं हाथ जोड़ती हूँ, मेरे जीवग की धूल उड़ाओ मत
यह हृदय तुम्हारी थाती है, यों देख इसे लौटाओ मत’
कवि-बाला कहती काँप उठी झंझा-पट-अंकित दीपक-सी
जैसे सागर-तट पर झिलमिल मणिमयी शिंशपा हो विकसी
आँसू से धुले कमल-मुख की शोभा न मलिन हो पाती थी
जलचादर में से दीपक की झिलमिला रही ज्यों बाती थी
कच देख रहा था हिम-शीतल वक्षस्थल का उठना-गिरना
मछली-सी चंचल आँखों का नीलम की लहरों पर तिरना
जिनकी चमकीली पाँखों से पीड़ा का वेग न रुकता हो
प्रिय-वंचित रति-भवनों में जब वंदी सौंदर्य सिसकता हो
बोला प्रत्यूष-शिलीमुख-सा सहलाता कलिका-अलकों को
जैसे धीरज हो पोंछ रहा कातरता की हिम-पलकों को
‘सौंदर्य-कला की यह सीमा, मैं धन्य, स्पर्श यदि कर पाता
ज्वाला-नद-सा पथ रोक रहा पर भगिनी का पावन नाता
असुरों ने यह तन चूर्ण बना, भर सोमसुरा के प्याले में
चुपचाप दिया था गुरुवर को जब ईर्ष्यावश अँधियाले में
कुक्षिस्थ रहा था मैं उनके जैसे फूलों में गंध मधुर
भावना मात्र ही नहीं, देवि! शोणित का है संबंध निठुर
तुम ज्येष्ठ बहन हो मेरी, दो अशीष विदा के साथ मुझे
प्रतिवर्ष भेजना सुरपुर में राखी ऋषियों के हाथ मुझे
मंगलमय जय-यात्रा हो यह, देवों का सपना हो कृतार्थ
त्रिभुवन में यश गूँजे मेरा’ बोली कवि-बाला, ‘हंत, स्वार्थ!
‘तुम सुख का सिंधु बटोर रहे कण भर औरों को मिल न सके
सौरभ-संचय में लीन, मधुप ! फूलों-से पल-भर खिल न सके
अपने सुख की उत्कंठा में औरों का हित जो तुच्छ बना
तुम भूल गये सब के मन में जगता सुंदरता का सपना
वह क्षुद्र कीट का भी अभीष्ट ज्वाला-चुंबन कर जो हँसता
उससे ही मिलता सुख उसको जिसका मन जिसमें है बसता
जब सांध्य-नखत सा हिमगिरि पर रक्खा था तुमने प्रथम चरण
मेरे सुख-स्वप्न! उसी दिन था मैंने तुमको कर लिया वरण
मानस पट-अंकित चित्र वही नित मौन पूजती आयी, मैं
तुम सुनते थे आलाप कभी पिछली निशि की पुरवाई में
‘अविदित न पिता से यह गाथा, अनुरोध मानकर मेरा ही
जीवित कर तीनों बार तुम्हें की त्रस्त सुरों की मनचाही
तुम खेल सरल मन के सुख से, अब छोड़ मुझे यों दीन-हीन
मलयानिल-से जा रहे, निठुर! कलिका की सौरभ -राशि छीन!
पढ़ विजन-कुमारी के उर की गोपन भाषा सहृदय स्वर से
अब व्यंग्य हँसी लिखते हो तुम पंखुरियों पर निर्दय कर से
उपकारों का प्रतिकार यही! आभार यही आभारी का!
तुम खेल रहे अंगार-सदृश ले हृदय हाथ में नारी का
चंचल लावण्य-प्रभा जिसकी पाती हो प्रात न स्नेह-स्फूर्ति
निष्प्रभ थी दीपशिखा-सी ही नारी निशि की श्रृंगार-मूर्ति
अंचल फैलाये सरिता की तट लाँघ सिसकती लहरी-सी
उड़ायाद्रि-क्षितिज पर ज्यों कोई तारिका विनत-मुख ठहरी-सी
करुणा, दुख, ईर्ष्या, रोष-विभा परिवर्तित जिसके क्षण-क्षण की
भावों के अभिनय में चित्रित नैराश्य-व्यथा-सी जीवन की
धड़कनें देवयानी-उर की सुनता ज्यों निज मन में, उदास
कच धीरे से बोला मानो सूनापन हो भर रहा साँस
‘प्रेरणा तुम्हारी थी जिसने जीवित कर तीनों बार मुझे
यह जीवन-मंत्र दिया, न बनूँ यदि मैं कृतज्ञ, धिक्कार मुझे
देवों के हित-साधन में पर जीवन पहले से होम चुका
मैं रिक्त-हदय उस घट-सा हूँ अर्पित हो जिसका सोम चुका
उसपर यह भगिनी का नाता वासना-क्षुधा से ऊपर जो
आत्मा का परिणय, नर-नारी संबंध श्रेष्ठतम भू पर जो
जो इसे कलंकित करते निज कामना पूर्ति के साधन में
वे रौरव-भागी, बहन बना जो भर लेते आलिंगन में
होलिका मनाना चाह रही तुम आग लगा अपने घर में
इस मोह-स्वप्न के हटते ही सब देख सकोगी क्षण भर में
‘मैं देख रही हूँ जो अब भी क्या और देखना बाकी है
उपयोग नहीं उसका कोई कातरता सुंदरता की है
‘यश भोगो तुम, हारे स्वदश, हो सत्य सुरों का जय-सपना
सचमुच अपने ही हाथों से मैंने घर फूँक दिया अपना
मैं कुल-कलंकिनी युग-युग तक शापित दानव-शिशुओं द्वारा
दिन-रात रहूँगी जलती ही जैसे कोई पुच्छल तारा
नंदन में फिर से देख तुम्हें सुर-सेव्य अपर कल्पद्रुम-से
अप्सरियाँ हो लेंगी कृतार्थ आलिंगित हो-होकर तुमसे
सुर-कीर्तिलता उर्वशी स्वयं बाँहों का पहना विजय-हार
कर इंद्र-सभा में वरण तुम्हें हर लेगी शचि का दुख अपार
उन गर्वोन्नरत छवि-भवनों में स्मृति भी क्योंे आयेगी मेरी
नूपुर-रव से मुखरित जिनमें देतीं सन्ध्या-ऊषा फेरी!
अंचल पसार कर भिक्षा में, लूँगी न स्नेह यह आधा मैं
साधन अब नहीं बनूँगी उन देवों के पथ की बाधा मैं
स्वातंत्र्य न खोयेगा स्वदेश चढ़ प्रेम-तुला पर नारी की
संजीवन-शक्ति विफल होगी तुमसे निर्मम अधिकारी की’
पँखुरी पर हिम-से सूख गये क्षण-भर में जिसके आँसू-कण
केसर-लट छिटका जलता था सरसिज-सा कोमल-कांत वदन
कुहरे-सा फैल विषाद गया आशा से दीप्त उमंगों में
भावी पढ़ता-सा कट अपनी मेचक कुंचित भ्रू-भंगों में
कच काँप उठा, गमनोद्यत-सा, अंगारों पर ज्यों पड़े पाँव
सर्वस्व एक ही बाजी में हारा सब जीते हुए दाँव
‘संयम था व्यर्थ युगों का वह निज पर कठोर शासन करना
विद्युत-सा नस के तारों पर बहता था जब मद का झरना!
लावण्य-प्रभा में लिपटी उन वन-बालाओं के भ्रूविलास
पनघट के पास निकलते ही छू जाती जिनकी मधुर साँस
वह त्याग-तपस्या के पट पर अंकित सुख-स्वप्नों का भविष्य
नारी के क्रोधानल में यों जलना था पल में बन हविष्य!
सुरपुर के पद-सम्मान गये अप्सरियों के वे प्रणय गीत
आलिंगन को बढ़ती बाँहें लज्जा की कृत्रिम परिधि जीत
‘उल्लसित अमरपुर सभा-मध्य अपराधी-सा जब नतमस्तक
पहुँचूँगा मैं, यह असफलता गूँजेगी नभ से धरणी तक
दैत्यों से पीड़ित सुर-वधुएँ उलटे कर मंगलमय कलसे
आक्रोश निकालेंगी अपना अभिशप्त मुझे कर दृग-जल से
मंदाकिनि-तट पर देवों की हारों का उत्तरदायी मैं
छाया-सा छिपता डोलूँगा नंदनवन की अमराई में
सर्वत्र उपेक्षित यह जीवन होगा काँटों की सेज कठिन
तारे गिन-गिन सूनी रातें निष्क्रिय दुख में बीतेंगे दिन’
विक्षुब्ध लहरियाँ मानस की नयनों से फूट निकलती-सी
उस कातर छवि की ओर बढ़ीं फणिनी-सी फेन उगलती-सी
विधु-शेष कला-सी रवि-पथ में आँसू की नदी बहाती-सी
जो रिक्त-तड़ित घनमाला-सी अब मौन खड़ी पछताती थी
‘संतोष हुआ तुमको अब तो दानव-साम्राज्य अजेय रहा!
लौटाया व्याज सहित मुझसे जितना भी अपना देय रहा!
गुरु भार अनुग्रह का सिर से, कर कृपा उतार लिया तुमने
सचमुच कितना आभारी मैं जिसको यों प्यार किया तुमने!
असुरों के कुल की रीति यही, तुमने तो धर्म निभाया है
भय क्याक रीते कर जाने में भिक्षुक बन कर जो आया है!
प्रतिहिंसा बनता प्रेम कभी प्रेमास्पद हित मिट जाता जो !
विश्वेश्वर का चिति-अंश अमर प्राणों का पावन नाता जो
मनसापि स्वण में भी मेरी गुरु-दुहिता तो उपभोग्य न थी
भूला मैं भगिनी कहते क्षण तुम तो इसके भी योग्य न थी
पथ- भ्रष्ट नदी-सी ये बाँहें मर्यादा-शील न ज्ञात जिन्हें
किंशुक-शाखा-सा कँपा रहा यौवन का झंझावात जिन्हें
मणिमय इन क्रुद्ध फणिनियों का द्विज एक न अनुरागी होगा
कोई कुल-निंदक ही इनके आलिंगन का भागी होगा!
भावों में ठेस लगी सहसा रुक सका न आँखों का पानी
यौवन की मूर्त विफलता-सी थी पछता रही देवयानी
पथ रोक रही थी सम्मुख हो मानो आँसू के तार जुड़ा
विद्युत-सा पाश तुड़ा पल में पंछी वन-पिंजर-पार उड़ा
मानस की मुक्ता लड़ियों सँग गिरकर संज्ञाहत काया थी
हिमस्रस्त लता-सी लोट रही भू पर अपनी ही छाया-सी
जीवन के उजड़े वृंतो पर टिकता कुसुमित संभार न था
कातर शब्दों में फूट पड़ी सहसा धुँधुआती मर्मव्यथा
‘संग्रह का त्याग न इष्ट तुम्हें, हम संग्रह करें त्याग सारा
अंधा वह स्वार्थ जिसे खलती अपने सुख-साधन की कारा
रो, हृदय! चपलता का तेरी परिणाम यही तो होना था
पगले! परदेसी के आगे तुझको यों आपा खोना था!
पर्वत को फोड़ कढ़ी धारा पिच्छल पर गिर लाचार गयी
मैं त्रिभुवन जय करने निकली अपने मन से ही हार गयी
दुर्बलते! तू ही नारी का धर रूप सृष्टि में आयी है
जो तुझे गिरा देगी क्षण में, तेरे भीतर वह काई है
कुल सुंदरता का अंत वही अभिशापित प्रेम कुमारी का
कौड़ी के मोल लुटाता जो हीरे-सा हृदय बिचारी का
वह प्रेम हृदय से लगकर अब रो रहा अभागे शिशु-सा है
चल दिया जिसे असहाय छोड़ निर्लज्ज जनक वनपशु-सा है
नव शस्य-सदृश्य वह क्यों न बना कर दूर जिसे वर्जित स्थल से
इप्सित भूतल पर रोप, हरा कर लेती मैं दृग के जल से
मानस के मंदिर में जलती अब भी कैसी यह स्नेह-शिखा
मैं बुझा न पाती हूँ जिसको आँसू बरसा कर, आँख दिखा
जलती अनंत बाड़व-सी अब यह ज्वाला शांत नहीं होगी
परित्यक्त प्रणय की तीव्र व्यथा पल भर विश्रांत नहीं होगी
रह गये भग्न सपनों-से जो आँसू वरुणी की नोकों में
मैं हार उन्हीं का लिये, विकल भटकूँगी तीनों लोकों में
नयनों के जल से धरती के सरिता-सर-सागर भरती-सी
मैं पावस-बाला-सी नभ से निकलूँगी क्रंदन करती-सी
सिहरेंगे मेरी सिसकी से सुर-बालाओं के केलि-शयन
जब प्रात-क्षितिज पर आऊँगी मैं करने तारक-पुष्प-चयन
संध्या-सी सागर-तीर खड़ी युग-युग तक मैं विरहिन बाला
उन्मत्त पुकारूँगी प्रिय को पहने आँसू की मणि-माला
मधुऋतु में तरु की डाली से मैं कोयल-सी चिल्लाऊँगी
पतझड़ के चीर उड़ा वन में झंझा-सी झोंके खाऊँगी
तन काँप रहा था तिनके-सा बिजली को भुजपाशों में भर
रोता है परवश यौवन ज्यों निष्फलता से सिर टकरा कर
‘ओ निर्मम तेरी स्मिति मन में शर-सी रह-रह चुभ जाती है
प्रिय के वियोग में फट न गयी यह, हाय! कुलिश की छाती है
धिक् जीवन! श्वास-तृषा जिसकी अब तक भी हो न सकी पूरी
बढ़ रही वयस-सी क्षण-क्षण में यद्यपि जीवनधन की दूरी
तितली-सी सँग-सँग उड़ न गयीं, पाकर भी पलकों की पाँखें
अब दीन मीन-सी तड़प रहीं, रो-रो जलहीन हुई आँखें
अब लौट न आओ परदेशी! देखो दिन बढ़ता जाता है
क्षण-भर में टूटेगा कैसे युग-युग जोड़ा जो नाता है!
आ जाओ मेरे यश-लोलुप! कह आज पिता से मैं अपने
दैत्यों का राज दिला तुमको पूरे कर दूँगी सब सपने
उर्वशी यहीं खिँच आयेगी वंदी सुरपति के साथ-साथ
दिखलाना उसकी नृत्य-कला मुझको चरणों में बिठा नाथ!’
प्रतिध्वनि से टकराकर मन की कातरता बंधन तोड़ चली
गिरि-निर्झर-धारा से लेती आँसू की धारा होड़ चली
तनु-लता सिहरती थी रह-रह मूर्छित लिपटी तरु-माला से
जल-जल उठती हो ज्योति बुझी जैसे अपनी ही ज्वाला से
प्रश्नों की मूक शिलाओं से मलयानिल सिर टकराता था
फूलोंसे रो-रोकर कहतीं किरणें, इतना ही नाता था