kagaz ki naao
आयु क्या निष्फल ही बीती है!
सारे दाँव हारकर भी मैंने बाजी जीती है
बाहर बुझा-बुझा-सा भी, भीतर आँवे-सा जलता
अचल दिखूँ जग को फिर भी मैं सदा रहा हूँ चलता
भरे हुओं से भी भारी मेरी गागर रीती है
जो अंगूर लता-सी मैंने भावों की निधि पायी
तपा-तपाकर उसको ही यह कविता-सुरा बनायी
सोचूँ क्यों अब, भली-बुरी यह मीठी या तीती है!
आयु क्या निष्फल ही बीती है!
सारे दाँव हारकर भी मैंने बाजी जीती है