kagaz ki naao
मैंने मन की हर ज़िद मानी
पर इस छलिया ने कभी न मेरी प्रवृत्ति पहिचानी
बोला फिर जप-तप कर लूँगा
खेल आज तो जी भर लूँगा
स्मृति के तलघर में धर लूँगा
संतों की भी वाणी
मार्ग श्रेय का भी हो जाना
कहा सदा इसका ही माना
मैंने भी पथ धरे सुहाना
रार बुद्धि से ठानी
कुछ तो त्याग-वृत्ति अपनाये
अब भी क्यों मन मुझे नचाये
रीते मेघ क्वार के छाये
क्या बरसेगा पानी!
मैंने मन की हर ज़िद मानी
पर इस छलिया ने कभी न मेरी प्रवृत्ति पहिचानी