kaljayee

झनझना उठे यौवन की लय में तार-तार
मुनि ने प्यासी आँखों से देखा विवश, हार
आकर्ण सुमन-शर खींच सामने खड़ा मार
कहता जैसे, ‘मैं जग-विजयी, कब हुआ क्षार!
मर-मरकर जी जाता हूँ

‘जो सदा-उदासी, संन्यासी, गत-राग-द्वेष
धृत-भुजग-हार, अविकार, शंभु कापालि-वेष
मैं डरता नहीं करें वे शत नयनोन्मेष
जो गरल पी चुके हों हँसकर साधक अशेष
मैं उनको पी जाता हूँ

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स्मर से देखी स्वामी की यह जड़ता न गयी
फिर कुसुम-शरासन लिये चला वह जग-विजयी
व्यापी त्रिभुवन में मोह-निशा उन्मादमयी
सुर्मई दृगों पर चढ़ी भौंह, काँपे प्रणयी
मुनियों के मानस सिहरे
गुंजित वसंत के छंद-बंध से मधुप-वृंद
उड़ चले चकित चंद्रातप कुंजों में अमंद
असमय मधु-याचित कंज सरों में रहे बंद!
निर्द्वन्द्व, खोलते दल पर दल, मृदु मंद-स्पंद
विधु की छाया-सँग बिहरे

स्मिति-सी किरणों पर प्राण पवन के आर-पार
नर्तित अमूर्त वह जग का शाश्वत मूर्तिकार
जड़-चेतन मिलते प्रेमाकुल बाँहें पसार
सर-सरित, गगन-भू, जलधि-क्षितिज, छायांधकार
चाँदनी-चाँद, तट-लहरी
खग-खगी चोंच में चोंच दिये कामातुर-से
तरु-बेलि केलि-रत, सहज सुवेष्ठित उर-उर से
गाता रसाल पर नर-कोकिल पंचम सुर से
चौंका देती जिसको क्षण-क्षण क्वण-नूपुर से
मंजर-मंजीरित भ्रमरी

आँगन में सहसा फैल गया दिन-सा प्रकाश
चकवी ने माँगी विदा प्राणधन से उदास
बुझ गये नखत, विरहिनियां सोयीं भग्न-आश
शिर-रतन-मुकुट, कुक्कुट, प्लुत-स्वर, पंडिताभास
बोला कुटीर से सटकर

पट अस्त-व्यस्त जैसे सरिता की लोल लहर
ढीले भुज-बंधन से हँस निकली प्रिया सिहर
लज्जित मुनि-पुंगव देख ब्राह्म चेतना-प्रहर
प्रज्वलित शिखा के पास शलभ ज्यों जाय ठहर
हो गये खड़े कुछ हटकर

संध्या-वंदन को गये त्वरित मुनि छोड़ शयन
पनघट पर अटपट पहुँच अहल्या चकित-नयन
घट पर से बहते जल में असफल मीन-चयन
बन गयी सहज जय-ध्वजा मयन की ज्योति-अयन
मुक्तालक-जित घनमाला
खोयी-खोयी-सी चिर निरर्थ-मन, यहाँ-वहाँ
लौटी कुटीर में शेष त्रियामा निशा जहाँ
‘छल आज उषा का! मुनि कैसे चल दिए? कहाँ?’
मलयज ने कानों से लगकर कुछ मौन कहा
थर-थर काँपी वह बाला

यह कौन कक्ष में पूनो शशि-सा मंदस्मित
धकधक करता था हृदय, चेतना तमसावृत
‘ऋषि लौटे निशि-भ्रम जान कि प्रिय प्राणों में स्थित?
कटंकित, अपरिचित नि:श्वासों से आकर्षित
सर्वांग शिथिल, भय-कातर
अवसन्न गौतमी, झलका ज्यों दव-सा समक्ष
‘यह इंद्रजाल रच रहा कौन गन्धर्व, यक्ष?
फूले फेनिल जलनिधि-सा उठ-उठ मुकुर-वक्ष
द्रुत गिरा, मृगी-सी चौंक, चकित सहसा अलक्ष
सकुची सुन प्रेमभरे स्वर

‘थी शेष रात कुछ अभी, विकल फिर आया मैं
प्रियतमे ! तुम्हारी स्मितियों से भरमाया मैं
आओ, निकुंज की चलें पुलकमय छाया में
बुन रहीं जहाँ किरणें कुसुमों की काया में
कोमल प्रकाश की जाली
रानी! जीवन की ज्योति! प्रेयसी प्राणोपम!
लगता जैसे तुम मिली आज ही मुझे प्रथम
अंतर में भर दो, प्रिये! हृदय का प्रेम चरम
कल मिले या न मिल सके पुन: यह सुख-संगम
रजनी ऐसी मतवाली’

‘सुरपति यह जिसने पति-अनुकृति धर ली अनूप
पाटल-विकीर्ण-पथ नहीं, अतल चिर अंधकृप’
कानों से लग बोले दृग-मधुकर, दंश-रूप
आया कुसुमित शर ले अरूप वह बाल भूप
बह चली वायु अनुकूला
सुगठित भुज-पट्ट, कपाट-वक्ष, हिम-गौर-स्कंध
तनु तरुण भानु-सा अरुण, स्रस्त-तूणीर-बंध
दृढ़ जय-मुकुट-शिर, कटि-तट मुनि पट धरे, अंध
प्रेमी के छल पर सलज, विहँस, उन्मद, सगंध
उर-सुमन प्रिया का फूला

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‘जय राम! ज्योति के धाम! विगत-भय-काम-क्रोध !
करुणा के सागर! दीनबंधु! भव-मुक्ति-शोध!
मैं पाप-निमग्ना, भग्ना, दुख-लग्ना, अबोध
दे शरण चरण की, नाथ! हरो मन का विरोध,
यह चिर-कलंक धुल जाये
‘अनुरागी मन के पावन पति पर ही उदार
मैं, हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार
प्रभु! शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार
तुम, देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार
जड़ता नव जीवन पाये

‘दुख भोग रही जो कर्म-चक्र-भ्रमिता, सकाम
प्रभु! बिना तुम्हारे आत्मा को मिलता विराम?
नारी अधमा, उस पर वामा मैं सतत वाम,
कैसे छू लूँ ये चरण सरोरुह मुक्तिधाम
भव-जलनिधि के बोहित से
‘जिन चरणों में जीवन का मंगल-स्रोत निहित
शीतल, कोमल, त्रय-ताप-हरण, सुर-मुनि-पूजित,
अशरण के शरण, तड़ित-विजड़ित-घन-शोभा-जित,
इस कंटक-वन में आये जो मेरे ही हित,
आनंदभरे सत्-चित्-से

‘अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा,
सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा
कैसे कह दूँ मैं, देव! कि जीवन गया वृथा
जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथा
कल्याणी, मंगलकारी !
जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!
क्यों आते जग में राम न जो रावण होते!
होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!
प्रभु! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते
बनती न शिला जो नारी!

दृग से झर-झर आँसू बरसे, रूँध गया गला
कह सकी न आगे कुछ भी भावाकुल अबला
बोले प्रभु करूणा-सजल, ‘अहल्ये! न रो, भला
तू पावन सदा पूर्णिमा की ज्यों चंद्र-कला,
अब और नहीं तपना है
वह क्षणिक हृदय की दुर्बलता, वह पाप-भार
कल का सारा जीवन जैसे बीती बयार
वह देख, आ रहे गौतम, पहला लिये प्यार
अब से नूतन जीवन, नव संसृति में सँवार
जो बीत गया सपना है

रवि-शशि-से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप
किसके मानस में उदित न होते पुण्य-पाप!
गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही माप
जन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप
जो कभी न दुख से हारा
जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहीं
जो पल-पल लड़ता गया कष्ट से थका नहीं
जो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहीं
जो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं
जन वही मुझे है प्यारा