kavita

बलि का फूल

बलि का फूल वह अम्लान
तितलियों ने मृदु अधर चूमे नहीं
किया भौरों ने नहीं गुंजार
बुलबुलों के गीत वायु वसंत की
पास से गुज़री हज़ारों बार
लौटकर मधुमास भी फिर चल दिया
लेकिन उसे क्‍या
अछूता ही रह गया वह तो सुमन सुकुमार
जब कि मुड़ देखा
विहँसता था
अधर पर थी सहज मुस्कान
पर छिपी कवि से न चितवन वेदना की छिपी
कोर तक भीगे हुए थे, करुण कोमल प्राण
वह न हुआ हताश और निराश कुछ
शून्य में ही रूप-मधु भरता रहा
प्यार कोई करे या न करे उसे
प्यार वह सबको मगर करता रहा
आँख से आँसू न निकले
जब कि छाती चीर
खून से रँग हाथ अपने वधिक बोला
है मिला बलिदान का अवसर तुझे
सचमुच बड़ी ईर्ष्या मुझे है आज
तेरी देखकर तकदीर
और वह था फूल पर वह बन गया पाषाण
एक उलझन
आखिरी दम तक रहा हैरान
भाग्य था माना मिली यह वेदना
यह जलन भी भाग्य का उपहार थी
किंतु होने के लिए बलि, हे प्रभो!
क्या भला इस रूप की दरकार थी!
जान पाया रूप यौवन और सुषमा के सजीले रंग
जान पाया चित्र जो देखे
पुलकती चाँदनी में
दूर उड़ते बादलों के संग
पर न पाया जान यह वरदान
फिर क्‍यों मिला यह यौवन, वसंत, विलास
बलि के लिए क्‍यों थे खिले
साँचे में ढले ये अंग
हारकर, मन मारकर वह रह गया
बोले नहीं, डोले नहीं भगवान
बलि का फूल वह अम्लान

1940