kavita

बस एक बार मुस्का दो ना

तूफान चला करता चढ़कर

मेरी साँसों की धड़कन पर

नयनों से झरता रहता है

अविरल झर-झर करता निर्झर

मैं एकाकी, अनजान पथिक

इस तम के पथ में गया भूल

नीरव रजनी, सूना वन-पथ

चलता जीवन-रथ सिहर-सिहर

तुम घन-अवगुंठन खोल अरी

क्षण भर तो राह दिखा दो ना

वह उतरी नभ से श्याम-परी
वह रंगभरी, वह रागभरी
वह माँग रही अंतिम चुंबन
अंतिम सिहरन अनुरागभरी
यह मधु अधरों का पुलक, परस
बन ज्योति गया जीवन नभ की
वह पल भर की मधुमय सुस्मृति
मृदु आशा बन पथ में बिखरी
तुम मेरें जीवन-नभ को भी
उतना ही मधुर बना दो ना

पथ भूल किरण आती न यहाँ
यह है ऐसा ही अंधकार
चंद्रमा कहाँ! रे खाने को
मिलता न चकोरी को अँगार
संभव है पूर्ण अभाव कहीं
भावों का रूपक पाता हो
मुझमें सागर की सत्ता है
कहता मरु का कण-कण पुकार
लेकर अपूर्णतायें मेरी
मुझको भी पूर्ण बना दो ना

वह बोल रही बुलबुल तरु पर
गिनती के क्षण हैं जीवन के
हो पूर्ण सकेंगे फिर कैसे
अरमान हजारों यौवन के!
यह ज्ञान उठा ले जा ज्ञानी!
अवकाश नहीं मुझको, सीखूँ
विस्मृति की मादक वेला में
हम पात्र नहीं हैं बंधन के
गा जिन्हें मस्त जीवन हो ले
मुझको वे गीत सिखा दो ना
बस एक बार मुस्का दो ना

1940