kavita

माँझी से

(रवीन्द्रनाथ के प्रति)

किसे पुकार रहा तू माँझी! धूमिल संध्या-वेला में
सागर का है तीर, खड़ा हूँ संगीहीन अकेला, मैं
डूब चुका रवि अरुण, थकी लहरें, उदास हैं सांध्य-पवन
तारक-मणियों से ज्योतित नीलम -परियों के राजभवन
मधुवन पीछे लहराता है शांत मरुस्थल के उर में
आगे तरल जलधि-प्रांगण रोता विषाद-पूरित सुर में

काला महादेश जादू का कहीं बसा होगा उस ओर
बैठा-बैठा जहाँ खींचता है कोई किरणों की डोर
माँझी! परिचित स्वामी तेरा युग-युग से वह जादूगर
जिसका कठिन नियंत्रण झंझा में समुद्र की लहरों पर

पिता गगन, जननी समुद्र, उंचासों पवन बंधु तेरे
अगणित बहन कुमारी लहरें, रहतीं जो निशि-दिन घेरे
सूर्य-चंद्रमा कंदुक, दशों दिशायें तेरी हमजोली
हाथ बाँध सेवा में रहती खड़ी तारकों की टोली

यौवन-मद में चूर मारता एकाकी डाँडें भरपूर
कितनी बार गया होगा तू लाखों कोस तीर से दूर!
जहाँ मार्ग के कंकड़ मोती, अलकापुर के पहुँच समीप
देखी होगी नीलम-घाटी, मणि-प्रवाल-रत्नों के द्वीप
वरुण-देश की राजकुमारी तुझ पर मोहित हुई कभी
वे अल्हड़ साहस-गाथायें आज स्वप्न की बात सभी

शिथिल बाँह, पग काँप रहे, कंठ-स्वर रुँधने को आया
झुकी कमर, जड़ काष्ठ उँगलियाँ, जीर्ण त्वचा, जर्जर काया
समझा, जीवन की संध्या में आज पुकार रहा किसको
कौन तरुण वह, सौंप चला जायेगा यह नौका जिसको
आ जा, माँझी! छाया-सा चुपचाप उतर निर्जन तट पर
इन लहरों से मैं खेलूँगा अब तेरी नौका लेकर

1941