kitne jivan kitni baar
अब तो ढहने लगे किनारे
एक-एक कर टूट रहे हैं तट के बंधन सारे
मौन हुई वीणा अंतर की
नहीं लौटती प्रतिध्वनि स्वर की
वंशी भी ज्यों वंशीधर की
अब है चुप्पी धारे
हुआ वही जो होना ही था
पाकर सब कुछ खोना ही था
हमें अंत में रोना ही था
क्या जीते! क्या हारे!
अब तो ढहने लगे किनारे
एक-एक कर टूट रहे हैं कुल तट-बंध हमारे