kuchh aur gulab
कुछ भी नहीं, जो हमसे छिपाते हो, ये क्या है !
मिलकर भी निगाहें न मिलाते हो, ये क्या है !
थे और बहाने नहीं आने के सैकड़ों
कहते हो– ‘हमें क्यों न बुलाते हो’, ये क्या है !
जब तक सजा के ख़ुद को हम आते हैं मंच पर
परदा ही सामने का गिराते हो, ये क्या है !
दिन-रात याद करने का एहसान तो गया
इल्ज़ाम भूलने का लगाते हो, ये क्या है !
माना नहीं क़बूल था मिलना गुलाब से
यह बात शहर भर को बताते हो, ये क्या है !